धरती का स्वर्ग है पर, कश्मीरियों के लिए नर्क है कश्मीर


धरती का स्वर्ग है पर, कश्मीरियों  के लिए नर्क है कश्मीर

कश्मीर का नाम आते ही हमारे दिल दिमाग में एक रोचांचकारी हलचल शुरू हो जाती है। जो लोग कश्मीर भ्रमण कर चुके हैं उनकी आंखों में कश्मीर की वादियों, पहलगांव में दूर-दूर तक फैला हुआ हरा कार्पेट का ²श्य एक तरंग की तरह हिलोरे खाने लगता है। मैं वर्ष 1969 में पहली बार श्रीनगर गया। ट्रेन वहां नहीं जाती, हवाई जहाज से जाने की मेरी क्षमता नहीं थी। इसलिए बस से ही कूच किया। पूरे दिन की थकान के बाद शाम तक श्रीनगर पहुंचे। जाने से पहले दिल्ली में श्री इन्द्रकुमार गुजराल से मुलाकात हुई थी। वे उस वक्त केन्द्र में लोक निर्माण (पीडब्ल्यूडी) मंत्री थे। उनका कहना था कि जब हमारे जैसा व्यक्ति (पत्रकार) श्रीनगर जाता है तो उसे सिर्फ शैलानी की तरह नहीं जाना चाहिए। उनके सुझावानुसार हमने वैली में घूमने और वहां के हालात के बारे में पता लगाने का निर्णय लिया। श्री गुजराल ने श्रीनगर स्थित यूथ होस्टल में हमारे ठहरने की व्यवस्था भी कर दी।



तब का कश्मीर




आज का कश्मीर


दो दिन वहां डल झील के शिकारा में ही रहे। श्रीनगर उनके आसपास घूमे। पहलगांव भी गये और कश्मीर घाटी की वादियों को कैमरे में भी कैद किया। फिर श्रीनगर के यूथ होस्टल गये जहां गुजराल साहब ने हमारे रहने की व्यवस्था कर दी थी। कश्मीर के कुछ युवकों को हमने खाने पर बुलाया। सभी तो नहीं आये पर कुछेक आये और हमने इकट्ठा खाना भी खाया। कश्मीर की युवा-ब्रिगेड से हमने कई टॉपिक पर बहस की। उनसे हुई बातचीत का प्रमुख अंश यह है कि कश्मीरी युवकों का यह मानना था कि वे हिन्दुस्तानी नहीं हैं क्योंकि उन्हें कभी भारतीय होने का अहसास नहीं कराया गया। उनको यह गलतफहमी है कि हिन्दुस्तानी लोग अमीर है, सम्पन्न हैं और वे खुद फटेहाल कश्मीरी। इसके प्रमाण में उन्होंने हिन्दुस्तानियों का उदाहरण दिया जो कश्मीर घूमने आते हैं। अच्छे कपड़े पहनते हैं, खाते-पीते हैं और मजा करते हैं। भारत के अधिकांश हिस्सों में कश्मीर से कहीं अधिक गरीबी है, यह उनके जहन में नहीं है। हमें उस वक्त ऐसा कोई कश्मीरी युवक नहीं मिला जो कभी घाटी से बाहर निकला हो, हिन्दुस्तान के शेष हिस्सों की बात तो छोड़ दीजिए। जो युवक हमसे अलग-अलग समूह में मिलने आये उनमें कश्मीरी लड़कियां नहीं थी। लगा उन्हें बाहर के लोगों से मिलने में परहेज है। हमने उन्हें समझाया कि बिहार, यूपी, बंगाल सभी प्रान्तों में बेइन्तहा गरीबी है। हमलोग जो यहां शैलानी आते हैं उनसे हिन्दुस्तान के आम आदमी का अन्दाजा मत लगाइये। मुझे स्मरण है उसमें से एक युवक जो प्राइमरी स्कूल का टीचर था बड़े ही आक्रामक ढंग से बोला- दो रुपये सेर चावल देकर आप कश्मीरियों को खरीदना चाहते हैं? उन दिनों कश्मीर में अनाज सब्सिडाईज्ट रेट में मिलता था।


कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। यह तो हम भूगोल में पढ़ते रहे हैं। इतिहास में भी यह दर्ज है। पर कश्मीरी लोग हमारे नहीं हैं, इस विडम्बना को हम नहीं समझ पाये। दो रुपया सेर चावल तो हमने दिया पर कश्मीर की लाल लाल सेव उनसे बेभाव खरीदकर हमारे अभिजात्य वर्ग ने अपने चेहरे लाल कर लिये। डल लेक का एक हिस्सा दुर्गन्ध से भरा था, हालांकि झील के बीच का पानी इतना साफ था कि सिक्का डालिये तो नीचे गहराई में भी साफ दिखाई देता था। कहीं कहीं शिकारे के पास नौका में आकर कश्मीरी शाल या केसर बेचते नजर आये।

कश्मीर में आज के दिन सात लाख सैनिक हैं। एक तरफ पाकिस्तान के अख्तियार वाले कश्मीरी इन्हें बेवफा मानते हैं तो दूसरी तरफ मुस्लिम चरमपंथी उन्हें काफिर समझते हैं। हालांकि 1975 के आसपास तक कश्मीर में लोग बेखौफ घूमते थे पर पूरे राज्य में विकास से अछूते रहे। एक एचएमटी घड़ी का कारखाना था, वह भी बन्द हो गया। ले देकर देश के पर्यटकों की दया पर उन्हें रहना पड़ा था। रोजगार की कोई संभावना नहीं थी। उस समय शायद ही किसी कश्मीरी के घर दो समय खाना बनता था। मैंने किसी कश्मीरी में मजहबी उन्माद नहीं पाया। पर्यटकों से सरोकार होने के कारण उनका इस्लामालिक रुझान कहीं देखने को नहीं मिला। अधिकांश युवकों के पास कोई काम नहीं था और वे यहां-वहां लक्ष्यहीन दिशाहीन घूमते-फिरते दिखे। पूरे जम्मू कश्मीर में एक ईंच रेलवे लाईन नहीं थी। बहुत बाद में जम्मू तक ट्रेन पहुंची। नेपाल का गरीब आदमी शाम को गांजा खाकर मस्त हो जाता है - वहां के बारे में कहा भी जाता है- ''सूर्य अस्त, नेपाल मस्तÓÓ पर कश्मीरी युवकों या अधेड़ों में नशे की प्रवृत्ति नहीं देखी। बाद में तथाकथित आजाद कश्मीर के लोगों ने आकर उन्हें भारत के खिलाफ भड़काया और उनके खाली हाथों में बन्दूकें थमा दी। कुछ लोगों ने मजहब के नाम पर उन्हें बहकाना शुरू कर दिया और मजहब की अफीम की पिनक में वे अपना होश खो बैठे। यह सही है कि कश्मीर में कोई भारतीय जमीन नहीं खरीद सकता पर सरकार द्वारा पूर्व सैनिकों को वहां बसाने से किसने रोका था। पंडितों के पलायन के समय हमारी फौज क्यों नहीं उनको जाने से रोक पायी। जम्मू के लोग तो कश्मीर में जमीन खरीद ही सकते थे पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। निजी उद्योग नहीं लगाये जा सकते थे पर सरकारी उद्यम तो शुरू किये जा सकते थे। फलों का रस बना कर डब्बा बंद बेचने का उद्योग लग सकता था। पर्यटन को और अधिक बढ़ाया जा सकता था। लघु, कुटिर एवं सूक्ष्म उद्योग लगा सकते थे। पर कश्मीर को पहले तो सिर्फ शैलानियों के भरोसे रहना पड़ा। बाद में अलगाववादी, मजहबी सिरफिरों ने उनको बरगलाया। परिणामस्वरूप उनके हाथ में मोबाइल फोन की जगह पत्थर आ गये और उनका शिकार हमारी सेना के जवानों को होना पड़ा। कश्मीरी आज भारतीय सेना को खलनायक मानते हैं।

370 हट गई, लेकिन कश्मीरियों के दिल दिमाग से भय, मजहबी जुनून और भविष्य की अनिश्चितता के गहन बादल जब तक नहीं हटेंगे, वहां भारत के प्रति लगाव नहीं पैदा हो सकता। विकास की पहली शर्त है शांति एवं स्थिरता, भविष्य के प्रति आशा। उसके आने तक विकास को प्रतीक्षा करनी होगी। सिर्फ लाखों की फौज से कश्मीरियों को नहीं जीता जा सकता।

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