लाटसाहब की कोठी में गूंजे कविता के स्वर


लाटसाहब की कोठी में गूंजे कविता के स्वर


कोलकाता का राजभवन देश के सबसे खूबसूरत प्रसादों में है। ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने इसे बनाया था। इसकी शिल्पकला अन्य प्रान्तों में बने राजभवनों की तुलना में सर्वश्रेष्ठ है। कोलकाता के राजभवन को साधारण लोग लाट साहब की कोठी भी बोलते हैं। मुझे याद है बामफ्रंट के जमाने में जब बड़ी-बड़ी राजनीतिक रैलियां निकलती थी, गांव-गंज से लोग इन रैलियों में लाये जाते थे। उन्हें मीटिंग के बाद दिखाया जाता था - देखो ये लाट साहब की कोठी है। यह देखो अजायब घर है - रानी विक्टोरिया का महल है - वगैरह-वगैरह। और ग्रामीण लोग इन्हें बड़े कौतूहल से जी भर के देखते थे।




कोलकाता का राजभवन सन् 1803 में चार वर्ष की कारीगरी के बाद तैयार हुआ था। गवर्नर जनरल लार्ड वेलसली इसमें रहने के लिए इतने छटपटा रहे थे कि कारीगरों द्वारा अन्तिम रूप देने के पहले ही अपना बोरिया-बिस्तर लेकर पहुँच गये। इसे पहले गवर्मेन्ट हाउस कहा जाता था जिसमें ब्रिटिश राज के दौरान 23 गवर्नर जनरल एवं बाद में वायसराय अपने परिवार के साथ 1912 तक रहे जब राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ले जायी गयी। राजभवन में शेर बब्बर के बड़े-बड़े बुत लगे हैं जिन्हें राजभवन के पराक्रम और रुतबे का प्रतीक माना गया। साधारण आदमी की तो इसके आसपास फटकने की हिम्मत नहीं होती थी। 27 एकड़ में फैले इस भवन में 84 हजार वर्ग फुट फ्लोर स्पेस है। जब राज्यपाल या राज्य का मंत्रिमंडल शपथ लेता है, राजभवन में रोशनी की जाती है, सज-धज कर तैयार किया जाता है।



21वें राज्यपाल के रूप में 24 जुलाई 2014 को इलाहाबाद से आकर श्री केशरीनाथ त्रिपाठी ने शपथ ली। त्रिपाठी जी जब शपथ लेने आये तो अपने साथ इलाहाबाद-लखनऊ-कानपुर से अपने कई राजनीतिक बंधुओं एवं आत्मजनों के साथ लाये थे। शपथ समारोह में मैं त्रिपाठी जी से तो नहीं मिला था पर उनकी इस ''बारातÓÓ के लोगों से मिलकर कुछ गुफ्तगू की। मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई संन्यासी अपने साथ साधुओं की टोली लेकर आया है। दो दिन बाद ही वे वापस इलाहाबाद चले गये और फिर राज्यपाल श्री केशरीनाथ त्रिपाठी का बाअदब मुलायजा पदार्पण हुआ। सौम्य किन्तु चेहरे पर तेज, त्रिपाठी जी से पहली बार मिलकर मैंने राजस्थानी मेले में आने का आग्रह किया। उनकी स्वीकृति मिली और वे अपनी पत्नी व कुछ साथियों के साथ आये। पूरा मेला मैंने उन्हें दिखाया, वे बेहद प्रसन्न हुए। सबके साथ बैठकर राजस्थानी व्यंजनों का स्वाद लिया। एक बार में ही महामहिम और मेरे जैसे साधारण आदमी के दरम्यां जो दीवार थी ध्वस्त हो गयी। फिर उनसे कुछ दिनों के अन्तर में मुलाकातें होती रहीं। दुर्गापूजा में ताजा टीवी के तीन दिवसीय डांडिया उत्सव में मेरे आमंत्रण पर फिर आये। इत्तेफाक से इस समय की राज्य की पहली महिला यानि श्रीमती त्रिपाठी भी उनके साथ ती। त्रिपाठी जी की सहजता, उनकी आत्मीयता से हमारा तारुफ बढ़ता गया। यह मेरा सौभाग्य था कि मेरे दो आयोजनों में त्रिपाठी जी अपनी अर्धांगिनी के साथ आये। कुछ समय बाद त्रिपाठी जी की पत्नी का देहान्त हो गया।
राज्यपाल त्रिपाठी जी ने संवैधानिक प्रमुख आहदे का ताना बाना उतार कर ऐसे रख दिया मानो यह उनको बोझ एवं उसका दबाव उन्हें कचोट रहा हो। त्रिपाठी जी एक कवि के रूप में बंगाल की साहित्य-संस्कृति प्रेमी जनता के बेताज बादशाह के रूप में उभरे। हर साहित्य सेवी उनका सखा बन गया, बंगाल की सांस्कृतिक विरासत में त्रिपाठी जी पूरे सन गये। राजभवन में आये दिन किसी न किसी साहित्यिक गोष्ठी में महामहिम शामिल रहते हैं। ऐसा नहीं कि पहले राजभवन में गोष्ठियां नहीं होती थी पर श्री त्रिपाठी ने तो साहित्यकारों एवं साहित्यप्रेमियों के लिये राजभवन का फ्लड गेट खोल दिया। मेरा अपना अनुमान है कि राज्यपाल त्रिपाठी जी ने राजभवन एवं बाहर ढाई सौ से अधिक साहित्यिक कृतियों का विमोचन किया। किसी को निराश नहीं किया। त्रिपाठी जी ने इस बात को किसी से नहीं छुपाया कि कविता सुनना और सुनाना उनकी कमजोर नब्ज है। आग्रह करने पर स्वरचित कवितायें बड़ी तन्मयता से सुनाते हैं। राज्यपाल के कार्यकाल में उनकी कविताओं का उर्दू, बंगला, अंग्रेजी, कश्मीरी, यहां तक कि उडिय़ा भाषा में अनुवाद हुआ। श्री त्रिपाठी अपने शयन कक्ष में भी पुस्तकें पढ़ते हैं। सुबह अपने कार्यालय में आ जाते हैं। मैं एक बार दोपहर दो बजे उनसे मिलने गया और आधे घंटे उनके साथ था। बाहर कुछ लोग उनसे मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने उत्सुकतावश पूछा त्रिपाठी जी लन्च कब करेंगे। उन्होंने कहा कि मुझे रोज तीन बज जाते हैं। फिर चार बजे के आसपास वे पुन: अपने कार्यालय में आ जाते हैं।

महामहिम 84 वर्ष के हो गये हैं लेकिन उनकी स्फूर्ति देखने को बनती है। एक बार गोर्की सदन में एक साहित्यिक कृति का विमोचन था। मैं भी उसमें उपस्थित था। वे मंच पर गये और माइक्रोफोन के तारों में उलझ कर गिर पड़े। लेकिन तुरन्त ही खड़े होकर अपने स्थान पर बैठ गये और एक घंटे से अधिक बैठे रहे। सभी उनका साहस देखकर दंग रह गये। कार्यक्रम समाप्त होते ही वे बेलव्यू गये और अपना प्राथमिक उपचार कराया किन्तु उसके बाद कई दिनों तक डाक्टर के परामर्श पर उन्होंने कोई कार्यक्रम हाथ में नहीं लिया। कविता उनको ऊर्जा प्रदान करती है, वे कविता में जीते हैं।
ऐसे त्रिपाठी जी को श्रद्धा से कहीं ज्यादा लोगों का प्यार मिला। उन्होंने भी पांच वर्ष के कार्यकाल में नैसर्गिक आनन्द लिया। त्रिपाठी जी ने मुझे कहा कि देश में सब जगह गया हूँ कोलकाता जैसा जीवन्त साहित्यिक मनोवृत्ति वाला शहर नहीं देखा। इलाहाबाद से हैं किन्तु कोलकाता को उन्होंने साहित्य-संस्कृति का संगम माना जिसमें वे हर रोज डुबकी लगाते थे।

अविस्मरणीय कार्यकाल की पूर्ति पर त्रिपाठी जी को प्रणाम। आप हमेशा याद आते रहेंगे राज्यपाल के रूप में - एक संवेदनशील व्यक्ति के रूप में।

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