बड़ी मुश्किल से होता है
चमन में दीदावर पैदा
श्री बसन्त कुमार बिड़ला का 98 वर्ष की आयु में
गत 3 जुलाई को निधन हो गया। वे जीवेम शत: की हमारी मंगल कामनाओं को पूरा नहीं कर
सके पर अपनी उम्र को उन्होंने भरपूर जिया। पिछले कुछ वर्षों की अस्वस्थता को
छोड़कर बसन्त बाबू जिन्हें लोग प्यार और सम्मान से बी के बाबू के नाम से बुलाते थे,
ने
जीवन का नैसर्गिक आनन्द लिया भी और लुटाया भी। बड़े धन कुबेरों में ऐसा उदाहरण
बहुत मिलता है जब किसी ने भौतिक सुविधाओं के बीच रह कर अपने को वैसे ही निर्लिप्त
रखा जैसे कमल खिलता तो कीचड़ में ही है पर अपने बेदाग रखता है। उनके जीवन काल का
सही विश्लेषण किया जाय तो उनके इस बेजोड़ व्यक्तित्व का राज समझ में आ जायेगा। बी के बाबू को अपने स्वर्गीय
पिता श्री घनश्याम दास बिड़ला के राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के एक योद्धा के रूप
में सान्निध्य मिला। विवाह भी जिस कन्या (सरला जी) से हुआ उनके पिता स्व. बृजलाल
बियानी आकोला (महाराष्ट्र) के प्रवीण स्वतंत्रता सेनानियों में से थे। सरला जी के
जुझारू स्वभाव का अन्दाज इसी से लगा लीजिये कि उन्होंने विवाह के पूर्व यह शर्त
रखी कि वे लड़के से बिना बात किये स्वीकृति नहीं दे सकती। उस जमाने में लड़की को
भावी जीवन साथी से बात करना तो दूर मिलने की इजाजत भी नहीं थी। घनश्याम दास जी के
परिवार भी इतना प्रगतिशील था कि उन्होंने इस शर्त का सम्मान किया।
बसन्त कुमार जी सिर्फ एक सफल एवं दूरदर्शी
उद्योगपति ही नहीं थे अपितु नारी शिक्षा, सामाजिक समरसता, कला, साहित्य
सभी क्षेत्रों में उनका महत्वपूर्ण अवदान था। इसकी प्रेरणा उन्हें महात्मा गांधी
से मिली। किशोरावस्था में बसन्त कुमार अपने पिता घनश्याम दास जी के साथ गांधी जी
के पास जाया करते थे। उन्होंने राष्ट्र की परतंत्रता भी देखी और स्वतंत्र भारत में
विकास की चुनौतियों का भी सामना किया। अपने पिता के स्वर्गवास के बाद बी के ने
घनश्याम दास जी के अद्भुत एवं विराट व्यक्तित्व व कृतित्व की विरासत को सम्हाला।
घनश्याम दास जी ने कई पुस्तकें लिखी। उनकी भाषा-शैली में ही बसन्त कुमार जी ने
उसका अनुसरण किया। उनके ''स्वांत: सुखायÓÓ के तीन खंड मूल
रूप से बिड़ला परिवार के पारिवारिक एवं सामाजिक सरोकार पर आधारित है किन्तु लेखक
बसन्त कुमार जी ने बिड़ला परिवार के उस संघर्ष का भी विस्तार से उल्लेख किया है
जिसके कारण बिड़ला परिवार का सामाजिक बहिष्कार किया गया था। किस प्रकार बिड़ला
परिवार ने अपने पारिवारिक एवं वैचारिक मूल्यों के लिए उस तूफान का सामना किया,
वह
समाज में काम करने वाले हर कार्यकर्ता को पढऩा चाहिए। दुर्भाग्य है कि हम सभा
सोसाइटी में बिड़ला परिवार के औद्योगिक विकास का ही जिक्र करते हैं किन्तु उसके
संघर्ष एवं विभिन्न क्षेत्रों में उनके अवदान का उल्लेख नहीं करते। कला मन्दिर,
संगीत
कला मन्दिर, बिड़ला अकादमी ऑफ आर्ट एंड कल्चर, कई
शहरों में शिक्षण संस्थाओं विशेषकर लड़कियों के लिये शिक्षा केन्द्रों, ओल्ड
एज होम आदि-आदि की स्थापना और उसका कुशल संचालन बी के बिड़ला के कृतित्व के
कीर्तिमान हैं जिन्हें वे अपने परिवार की अगली पीढ़ी को सौंप गये हैं।
बसन्त कुमार जी ने हर क्षेत्र में लोगों को
तैयार किया और बढ़ाया। आज उनके तैयार किये हुए उनके ही परिवार के लोग कुशलतापूर्वक
संस्थाओं का संचालन कर रहे हैं। मानव सेवा के क्षेत्र में सर्वोपरि पुष्कर लाल
केडिया, को सार्वजनिक क्षेत्र में अगवा किया तो साहित्य सृजन में रामनिवास
जाजू, कला संगीत के क्षेत्र में रमण लाल बिन्नानी ऐसे कई नाम हैं जिनको
अपने-अपने क्षेत्र का सिरमौर बनाने में बाबू बसन्त कुमार जी की भूमिका ''मेन्टरÓÓ
की
तरह थी। हाल के वर्षों में आनन्दलोक और उसके संस्थापक देव कुमार सराफ की उन्होंने
मुक्तहस्त सहायता की, हालांकि सराफ ने अपने को सूपर ह्यूमन बनाने के
चक्कर में सेवा को पीछे धकेल दिया। अन्य सर्वजन हिताय के कार्यों में बसन्त कुमार
जी पूरी रुचि लेते थे।
बी के बाबू स्वभाव से पारखी थे। मुझे याद है
उनके साथ हुई मुलाकातों में वे बड़ी आत्मीयता से मेरे परिवार के अन्य सदस्यों एवं
कारोबार के बारे में पूछते थे। मेरे दोनों पुत्रों के विवाह पर उन्होंने स्वयं आकर
आशीर्वाद दिया। साथ में सरला जी भी आयी थी। किसी भी काम की वे चन्द मिनटों में पड़ता
निकाल लेते थे एवं उनकी तरफ से उचित परामर्श भी देते। उनके विलक्षण एवं अद्वितीय
व्यक्तित्व की सिर्फ एक बानगी काफी है। आनन्दलोक ने दूरदराज में गरीबों क लिये
मकान बनाये थे। एक बार वे उन्हें देखने गये। सुदूर इलाकों में बारिश के मौसम में
वे उन मकानों में गये जहां बिजली, पंखा नहीं था। आमलोगों के साथ पतल में
भोजन किया बिना चम्मच कांटे के हाथ से खाना खाया और अपने हाथ से पत्तल को कूड़ेदान
में डाला। हमारे राजनेता चुनाव के मौसम में ऐसा करते हैं पर देश का एक बड़ा
उद्योगपति के बारे में यह कल्पना से परे है। बसन्त कुमार जी कला प्रेमी थे। उनके
पास कला कृतियों, पेन्टिंग्स का भंडार था। इन्हीं पेन्टिंग्स के
बेहतरीन उपयोग के लिये ही उन्होंने बिड़ला अकादमी ऑफ एंड कल्चर की स्थापना की।
बिड़ला पार्क में पेड़ पौधों की पूरी सूची उन्हें कंठस्थ थी। प्रकृति प्रेमी थे
अत: घुमक्कड़ स्वभाव के थे। संगीत कला मन्दिर में सदस्यों को कार्यक्रमों में वे
मात्र श्रोता नहीं थे बल्कि स्वयं भी भाग लेते। मैंने कला मन्दिर के मंच पर उनका
एवं सरलाजी का युगल-गान सुना है। गिटार बजाने का उन्हें शौक था। उन्हें फोटोग्राफी
का भी शौक था। इस प्रकार बी के बाबू का व्यक्तित्व इन्द्रधनुष की तरह सतरंगी था।
यही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी जिसके बल पर 1995 में युवा पुत्र के वज्रपात पर भी
उन्होंने अकल्पनीय धैर्य धारण रखा। अपनी विदूषी पत्नी जो हर पल उनके हर कार्य में
साथ रहती - उसके बिछोह को भी उन्हें झेलना पड़ा। मैं उनसे कई-कई बार मिला उनके
चेहरे पर एक स्वाभाविक मुस्कान बिखरी हुई रहती थी। 4 जुलाई को बिड़ला पार्क में जब
उनके अंतिम दर्शन करने गया, वहां हजारों गमगीन चेहरे देखे पर उनके
मुख मंडल पर तो वही मुस्कान थी।
बड़े शौक से सुन रहा था जमाना तेरी दास्तां
तुम्हीं सो गये दास्तां कहते कहते।

ऐसे उद्योगपति का जाना एक युग का समाप्त हो जाना है। डॉ सरला बिरला और वसंत कुमार बिरला ने परंपराओं का निर्वाह करते हुए आधुनिकीकरण को लेकर हर क्षेत्र में विकास कार्य किया। मारवाड़ी औद्योगिक घरानों में बिरला समूह अपने संस्कारों के साथ उद्योगों में अपने योगदान के लिए जाना जाएगा। यह इतिहास के स्वर्ण अक्षर रहे हैं। शिक्षा स्वास्थ्य धर्म आदि सभी क्षेत्रों में बिरला नाम ही उच्चतम स्तर की सेवाओं का प्रमाण है। मंदिर भी बिरला मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह पहचान वास्तव में अब दुर्लभ है। बधाई और विनम्र श्रद्धांजलि
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