बच्चों की दो दुनिया


बच्चों की दो दुनिया
कुछ भुखमरी के शिकार हैं कुछ को प्यार की भूख सता रही है

हमारे देश में बच्चों की दो दुनिया है। एक दुनिया के वे बच्चे हिस्सा हैं जिन्हें दो जून का खाना नसीब नहीं होता। कूड़े की ढ़ेर से एवं नालियों से छान कर अन्न के कुछ दाने बटोर कर खाते हैं। या फिर अनुष्ठानों में जूठन से पेट भरते हैं। 55 प्रतिशत से अधिक भारतीय बच्चों का लीवर बिगड़ा हुआ रहा है क्योंकि उन्हें न्यूनतम पौष्टिक भोजन भी नसीब नहीं होता। हां उन्हें अपने मां-बाप का प्यार भरपूर मिलता है। कई बच्चों को अपना परिवार पालने के लिये किसी रेस्तरां में दिन रात काम करना पड़ता है। यह ²श्य हम और आप प्राय: रोज देखते हैं। एक दूसरा भी भारत है जहां बच्चों को इतना कुछ मिल जाता है कि उन्हें किसी भौतिक सुख की जरूरत नहीं होती। लेकिन इनमें से बच्चों का एक वर्ग ऐसा भी है जो अपने मां-बाप या परिजनों के स्नेह के लिये तरसते हैं। दुनिया का हर सुख उनको मुहैया करा दिया जाता है बस शर्त है कि वे उस सुख में हिंडोले खाते रहें, मां-बाप के दुलार की अपेक्षा न करें।






अभी 26 जून की ही एक घटना इस तरह के परि²श्य का एक छोटा सा नमूना है। दक्षिण कोलकाता की एक नामी ग्रामी स्कूल की एक छात्रा ने हाथ की नस काटकर खुदकुशी की कोशिश की। साथ ही इसी स्कूल की सातवीं कक्षा की छात्रा के बैग से पांच ब्लेड भी बरामद हुये हैं। स्कूल में छात्रा ने शौचालय में जाकर खुद को बंद कर लिया था और हाथ की नस काट ली थी। इस घटना के चार दिन पहले ही टालीगंज की एक प्रतिष्ठित स्कूल में दसवीं कक्षा की एक छात्रा ने प्लास्टिक से मुंह ढक लिया और दम घुटने से उसकी मृत्यु हो गयी। शौचालय को धक्का देकर खोला गया। अस्पताल ले जाया गया तब तक उसकी मृत्यु हो चुकी थी। ये घटनायें दक्षिण कोलकाता की नामी स्कूलों की है।

नस काटकर खुदकुशी करने वाली छात्रा बच गई। उससे पूछा गया तो उसने बताया कि वह लम्बे समय से तनाव में थी। उसने कहा, किसी के पास मेरे लिए समय नहीं है। मुझे कोई प्यार नहीं करता, इसलिए मैं जीना नहीं चाहती। वह बच्ची स्कूल में अमूमन अपनी सहेलियों के साथ हंसी-खुशी रहती थी। वारदात के बाद उसके पिता को फोन किया गया तो पता लगा वे शहर में नहीं हैं जबकि उसकी मां अपनी नौकरी पर गई हुई थी। काफी देर बाद वह स्कूल में आई और बच्ची को घर ले गई। इधर बच्ची के मां-बाप से बाद में संपर्क करने की कोशिश की गई लेकिन दोनों में से किसी ने भी कुछ कहने से इन्कार कर दिया। सुरक्षा के कारणों से बच्चों के नाम का खुलासा नहीं किया गया है।
कोलकाता उच्च न्यायालय सारे मामले को लेकर हत्प्रभ है। उसको आश्चर्य है कि यह घटना कैसे हो सकती है। गत बृहस्पतिवार को उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को यह हिदायत दी है कि वह पूरे मामले की रिपोर्ट प्रेषित करे साथ ही यह भी बताये कि बंगाल के स्कूलों में काउंसिलिंग की व्यवस्था है या नहीं, टॉयलेट में अटेंडेंट एवं वाशरूम की समुचित व्यवस्था है या नहीं। कोर्ट ने यह भी जिज्ञासा की है कि क्या कक्षा के हर पीरियड में हाजिरा लेने की व्यवस्था की जा सकती है मामले की अगली सुनवाई 22 जुलाई को रखी गयी है एवं हाईकोर्ट के आदेशानुसार सीबीएसई एवं सीआईएससीई सभी बोर्ड के अधिकारियों को तारीख पर हाजिर होने का आदेश दिया है। क्लास दस की जिस छात्रा की मृत्यु हो गई उसके अभिभावकोंको भी हाजिर होने का निर्देश दिया गया है। महिला वकील प्रियंका टिबड़ेवाल ने इस मामले को कोर्ट में ले जाने की साहसिक पहल की है।

न्यायालय की मुस्तैदी इन सारे वारदात को क्या अंजाम देगी, यह तो भविष्य ही बतायेगा, किन्तु स्कूलों में टॉयलेट के बारे में बताया जाता है कि नामी ग्रामी स्कूलों के टॉयलेट में साफ-सफाई कु समुचित व्यवस्था नहीं है। कई बच्चे टॉयलेट में गंदगी की वजह से टॉयलेट नहीं जाते हैं- प्राकृतिक आवश्यकताओं को रोक के रखते हैं जिसके फलस्वरूप उनको बीमारियों से ग्रसित होना पड़ता है।

इन सबसे भी बड़ा प्रश्न है हमारे पारिवारिक जीवन का। बच्चों को उनके माता-पिता का प्यार नहीं मिलता जिसके कारण ब्लेड से उन्हें अपनी नसें काटकर जीवन समाप्त करना पड़ता है या वे बच जाते हैं तो फिर उपेक्षा और पारिवारिक कलहों के कुएं में ढकेल दिये जाते हैं। अमेरिका में 40 से 60 प्रतिशत स्कूली बच्चे अपने साथ पिस्तौल लेकर जाते हैं। बच्चों में आपस में विवाद हो जाये तो दोनों तरफ से गोलियां चलती है। कुछ समय पहले ही एक स्कूल में छात्रों के आपसी झगड़े में कई बच्चों की लाशें बिछ गई थी। हमारे देश में अगर छात्रों की घरों में यही उपेक्षा बनी रही तो वे दिन दूर नहीं जब कई बच्चे जेब में पिस्तौल या चाकू लेकर स्कूल जायेंगे।

बच्चों के मानसिक विकास के लिये जरूरी है कि उन्हें परिवार में स्नेह और दुलार मिले। संयुक्त परिवार में इसकी कमी नहीं थी। बच्चों को डांट भी खानी पड़ती थी, मार भी पड़ती थी। पर घरवालों के प्यार और देखभाल इन सब पर भारी थी। बच्चों को गलत दिशा में जाने पर अनेक टोकने वाले होते थे। लेकिन जैसे-जैसे संयुक्त परिवार टूटता गया वैसे-वैसे पारिवारिक माहौल बनने में कमी आती जा रही है। पति-पत्नी दोनों नौकरी में हैं तो बच्चे की देखभाल हॉस्टल में या घर पर होती है तो दाई या मैट्रन के भरोसे। ऐसे में बच्चे के बिगडऩे व शुष्क होने की आशंका ज्यादा होती है। अब संयुक्त परिवार की व्यवस्था वापस आने से रही लेकिन छोटे परिवारों में भी बच्चों की देखभाल सही ढंग से हो सकती है। प्रेम परिजनों से भी मिल सकता है, पड़ोस से भी। घर में तनाव न हो, उलझन और पेचीदियां न होतो फिर बच्चे स्वच्छन्द रह सकते हैं। बच्चे जितने उन्मुक्त होंगे, उनका विकास उतनी ही तेजी सो होगा। उन पर किसी तरह का दबाव उनके विकास के लिए स्पीड ब्रेकर होता है। बच्चों की रुचि, उनकी प्रकृति से निकटता उनके आगे बढऩे में सहायक होती है। छात्रों में अस्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा की भावना एवं येन-केन-प्रकारेण ऊंचे नम्बर लाने की होड़ बहुत ही नुकसानदेह है। बच्चे को खुलापन दीजिये, उस पर भौतिक सुखों की बौछार की बजाय उसे खुली हवा में सांस लेने दीजिये। उसकी इच्छाओं और आकांक्षाओं को लेकर उससे एक मित्र की तरह बात करें।

आत्महत्या की ये घटनायें आने वाले खतरे की सूचक हैं। भारतीय समाज को अमरीकियों की तरह भौतिक सुखों से लबालब करने की बजाय उसे भारतीय संस्कारों एवं परम्परा का सम्बल दीजिये।

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