बुर्का या घूंघट
उठा तो भेद खुल जायेगा
श्रीलंका में आतंकी हमले के साइड इफेक्ट ने भारत में बुर्का और घूंघट के बीच झगड़ा लगा दिया। कोलम्बो में चर्च और होटलों पर आठ धमाकों में 250 से अधिक लोगों की जानें गयीं। इसके पीछे श्रीलंका के ही कट्टरवादी संगठन का हाथ बताया गया जिसके तार आतंकी संगठन आईएसआई से जुड़े हुये थे। आतंकियों के आत्मघाती दस्ते में एक महिला शामिल थी जो बुर्के में होटल के अंदर गयी थी। इन्हीं सब वजहों से 28 अप्रैल को श्रीलंका के राष्ट्रपति ने घोषणा की कि सुरक्षा कारणों से सार्वजनिक स्थानों पर बुर्के का इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा। साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा की ²ष्टि से वहां बुर्का पहनने पर रोक लगा दी गयी। चेहरा ढक कर कोई भी व्यक्ति नजर बचाकर निकल सकता है। लंका को इतनी बड़ी चोट लगी कि बुर्का बैन पर मुस्लिम समुदाय के लोग भी खुलकर कुछ बोल नहीं सके। भारत में भी आवाज उठी कि बुर्के पर पाबंदी लगनी चाहिये। हिन्दूवादी शिवसेना के मुखपत्र सामना ने सम्पादीय में लिखा कि क्या विडम्बना है कि रावण की लंका में तो बुर्का बैन हो गया पर राम की अयोध्या में ऐसा नहीं हुआ। सामना के सम्पादकीय के बाद हमारे देश में भी बुर्का बैन की आवाज उठी। इसी बीच सुप्रसिद्ध फिल्म संवाद लेखक और कवि जावेद अख्तर ने भोपाल में एक चुनावी सभा में कह डाला कि बुर्का पर प्रतिबंध लगे तो फिर घूंघट पर भी रोक लगे। जावेद साहब मुसलमान हैं शायद इसलिए उनके बयान पर हिन्दू समाज के कुछ लोग उत्तेजित हो गये। यह बयान कोई हिन्दू देता तो बात आयी गयी हो जाती पर एक मुसलमान बुद्धिजीवी का हमारी परदा प्रथा पर अंगुली उठाना नागवार गुजरा। राजस्थान की बहुचर्चित राजपूत करनी सेना ने जावेद साहब को आड़े हाथ लिया। करनी सेना की महाराष्ट्र शाखा के अध्यक्ष तुरंत एक भारी भरकम मिसाइल छोड़ा। अख्तर से कहा गया कि तीन दिनों में वह माफी मागे या उसका परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जायें। उन्होंने एक वीडियो रेकार्डिंग के जरिये जावेद अख्तर को चेतावनी दी कि ''इस बयान को वापस नहीं लिया गया तो हम आपकी आंख निकाल लेंगे एवं जुबान काट कर रख देंगे।"अब बुर्का और घूंघट दोनों राजनीतिक लड़ाई के मैदान में घसीट लिये गये हैं। चुनाव का समय है इसलिए दोनों पक्ष ने आस्तीन उठा रखी है।
श्रीलंका के मुसलमानों में गुस्सा है। उनका कहना है कि सरकार जानबूझ कर एक मजहब को निशाना बना रही है। खासकर महिलाओं में इससे नाराजगी है। संयुक्त राष्ट्र ने एक साल पहले 2018 में अपनी ह्यूमन राइट्स कमिटी के जरिये बुर्का पर प्रतिबंध को यह कहकर गलत बताया था कि ये महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन तो है ही साथ ही धार्मिक तौर पर उनके विश्वासों को ठेस भी पहुंचाता है। हालांकि दुनिया भर में बहुत से मुस्लिम स्कॉलर महिलाओं को बुर्का में रखने को सही नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि महिलाओं के लिए ऐसा करना कतई जरूरी नहीं है। ग्रीक ज्योग्राफर स्त्राबो ने लिखा है कि उसने पहली सदी में मध्य दुनिया के देशों में महिलाओं को चेहरा ढंके हुए देखा था। इस्लाम से पहले भी इस तरह से चेहरा ढका जाता था। बालों को बचाने के लिए सिर को कपड़े से बांधकर रखते थे। जब इस्लाम आया तो उसने इस परिपाटी को अपनी संस्कृति का हिस्सा बना लिया।
पर्दा प्रथा का ही एक पहलू है बुर्का का चलन। बुर्का एक तरह का घूंघट है जो मुस्लिम महिलाएं और लड़कियां खास जगहों पर खुद को पुरुषों की निगाह से अलग रखने के लिए इस्तेमाल करती हैं। कहते हैं हिन्दुओं में पर्दा प्रथा इस्लाम की देन है। इस्लाम के प्रभाव से और इस्लामी आक्रमण के समय खुद को बचाने के लिए हिन्दू स्त्रियां भी पर्दा करने लगीं। इस प्रथा ने मुगल शासकों के दौरान अपनी जड़ें काफी मजबूत की। वैसे इस तरह की प्रथा की शुरुआत 12वीं सदी में मानी जाती है। प्राचीन भारत मेंं बहुएं भी पर्दे में लोगों के सामने नहीं आती थीं। वे अपना सिर खुला ही रखती थीं। खैर इस चर्चा का कोई अन्त नहीं कि बुर्का और घूंघट महिलाओं का अधिकार है या नहीं। हम यह कह सकते हैं कि मुसलमानों में भी शिक्षित तबका बुर्का नहीं पहनता। कुछ महिलाएं हिजाब पहनती हैं ज बुर्के से ज्यादा प्रगतिशील है, कुछ एक चादर ओढ़ लेती हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर पर्दानसीन मुस्लिम और घूंघट के पैरोकार हिन्दू कोई रास्ता निकालें कि आपका पर्दा बना रहे और सुरक्षा को भी आंच न आये। दुर्भाग्यवश सुरक्षा के मुद्दे को छोड़ कर अब यह बहस हिन्दू और मुस्लिम के फर्क की हो गयी है।
पर्दा प्रथा हो या बुर्का दोनों के विरुद्ध उन्हीं के समाज के लोगों ने कदम उठाये हैं। तुर्की के राष्ट्रपति अतातुर रहमान ने वहां की मुस्लिम औरतों से बुर्का जबरन हटा दिया था। उसी के बाद तुर्की की एक युवती मिस वल्र्ड की खिताब जीती वर्ना मुस्लिम राष्ट्र की कोई महिला मिस वल्र्ड में भाग ले, सोचा भी नहीं गया था। बुर्का परस्तों के खिलाफ हमारे बॉलीवुड ने फिल्मी गानों के माध्यम से भी हमला किया। फिल्म अमर अकबर एन्थॉनी के लोकप्रिय गाने को याद करिये - परदानीसीं को बेपरदा न कर दूं, तो...तो अकबर मेरा नाम नहीं - परदा है परदा.... इस गाने का हिन्दुओं ने भी लुफ्त लिया और मुसलमानों ने भी। मर्दों ने भी, औरतों ने भी। किसी को बुरा नहीं लगा।
इसी तरह एक और गाने की बानगी लीजिये- घूंघट की आड़ से दिलवर का दीदार अधूरा लगता है - जब तक ना पड़े साजन की नजर शृंगार अधूरा लगता है। गाना सुनकर किसने आनन्द नहीं उठाया होगा। घूंघट कैसे एक प्रेमी को नागवार गुजरता है या उसे रास नहीं आता, इस पर खुल्लमखुल्ला यह गाना एक डिसेंस नोट यानि असंतोष की पाती है। मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी साहब का एक शेर ही परदा परस्तों की अक्ल को ठिकाने लगाने के लिए काफी है-
बेपरदा नजर आई जो कल चन्द बीबियां
अकबर जमीं में गैरते कौमी से गड़ गये।
पूछा जो उनसे आपका परदा कहां गया
कहने लगी कि अक्ल पे मर्दों की पड़ गया।
एक पुराना और बड़ा लोकप्रिय छायावादी गीत याद आ गया जिसके बोल आप भूले नहीं होंगे-
घूंघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे...।
कहने का तात्पर्य है कि हिन्दू हो या मुसलमान पर्दा उसे कभी रास नहीं आया। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई भी औरत परदा चाहे वह घूंघट के रूप में हो या बुर्के के, पसन्द नहीं करती है। यह बात और है कि सामाजिक दबाव और पारिवारिक सह अस्तित्व की भावना से वह इसे स्वीकार कर लेती है। यही कारण है कि मुसलमान औरतों ने शिक्षा के माध्यम से जब आंख खोली तो उसने परदे को हटा दिया। इसीलिए यह फिल्मी गाना भी लोगों की सांसों में उतर गया-
परदे में रहने दो, परदा जो उठ गया तो भेद खुल जायेगा...।

Absolutely right. Your thinking is quite amazing. May your articles be more splendid. Thanks.
ReplyDeleteWith regards,
Tapashi Bose.