'अंखियों से गोली मारे''
माँ गवरजा के गीतों पर थिरक उठा मारवाड़ी समाज
होली के दो हफ्ते बाद से शुरू हुआ गणगौर का पर्व। यह मूलत: लड़कियों का पर्व है जिसे वे अच्छे व योग्य पति की कामना हेतु करती हैं एवं शादीसुदा महिलायें अपने पति की कुशल क्षेम के लिये। अच्छी बात यह है कि इसे धार्मिक पर्व से कहीं अधिक सांस्कृतिक पर्व के रूप में मनाया जाता है। महिलाओं के इस त्योहार में पुरुषों की भागीदारी भी बढ़ चढ़ कर होती है। जहां लड़कियां गणगौर पूजती हैं, माँ गौरी की आराधना करती हैं वहीं पुरुष गणगौर उत्सव में अपनी-अपनी गायन मंडियों के साथ गवरजा मां के गीत प्रस्तुत करते हैं। वाद्ययंत्रों तबला, हारमोनियम, सारंगी, गिटार के साथ गणगौर के गीतों पर नृत्य भी प्रस्तुत किये जाते हैं। गणगौर उत्सव पर मोहल्लों में बड़ी रौनक रहती है और गवरजा पूजने वाली लड़कियां इन गलीकूचों में राज कर रही है। बहुत सारे लोकगीत माता गरवजा और उनके पति ईसर दास जी के बारे में गाये जाते हैं। गुड्डे-गुड्डियों की खेल की तरह गवरजा की छोटी प्रतिमाओं को साड़ी-कुर्ती का ब्लाउज पहनाकर उनकी सवारी निकाली जाती है और दुल्हन को जैसे गीतों के साथ घर से विदा किया जाता है, वही समां गणगौर को मनाने के समय बांधा जाता है। राजस्थान में तो इस पर्व की धूम हर गल्ली-मोहल्ले में देखने को मिलती है किन्तु जहां राजस्थानी समाज के कुछ लोग भी रहते हैं, वहां भी पूरी सांस्कृतिक मर्यादा के साथ गणगौर उत्सव मनाया जाता है। जयपुर में गणगौर की सवारी देखने हुजूम उमड़ता है। जहां से सवारी निकलती है उस रास्ते के दोनों तरफ भीड़ से बचने के लिये बैरीकेड लगाये जाते हैं। मां गवरजा एवं उसकी झांकी देखने वालों की भीड़ उमड़ती है। जयपुर में उस भीड़ में हजारों विदेशी शैलानी भी होते हैं।
सस्ते फिल्मी गाने की तर्ज पर गवरजा के गीत पर झूमती एक गृहिणी।कलकत्ता में पचपन-साठ वर्ष पहले विभिन्न गवरजा मंडलियों में गायन प्रतियोगिता होती थी। गणगौर उत्सव पर मंडलियां गवरजा के सामूहिक गीत गाते। फिर उनमें प्रतियोगिताएं भी होती थी। श्रेष्ठ गायन हेतु मंडलियों को पुरस्कार भी दिये जाते थे। यह अनुष्ठान रात भर चलता था। गायन मंडिलयों की इस प्रतियोगिता में लड़के ही बढ़-चढ़कर भाग लेते थे पर लड़कियों की संख्या नगण्य होती थी। इन मंडिलयों के गायक कलाकारों में रवीन्द्र जैन, राजेन्द्र जैन, संगीतज्ञ वी. बलसारा जैसी हस्तियां भी शुमार होती थी। कुछ गाने फिल्मी धुन पर भी होते थे पर अधिकांश गीत गणगौर के लोकगीत थे। राजस्थानी भाषा में सैकड़ों गीत हैं गवरजा पूजन के। सभी लोकगीत हैं।
कलकत्ता में अब बी गवरजा पूजन लगभग पहले की तरह ही होता है। गणगौर पूजा की एक दर्जन से अधिक मंडलियां हैं। लड़के कुर्ते में बन ठन कर ''पेचा'' (पगड़ी) पहन कर इन मंडिलयों की शोभा बढ़ाते हैं। कहने को नींबूतल्ला में प्रतियोगिताएं भी होती हैं पर अब उनका रंग फीका पड़ गया है। सभी गाने लोकप्रिय फिल्मी गानों की तर्ज पर गाये जाते हैं। इस साल मुझे कई गवरजा उत्सवों में जाने का अवसर मिला। महिलाओं की संख्या पहले से बढ़ गयी है। पुरुषों में भी उत्साह रहता है। पर गणगौर के इन गीतों को सुनने जन सैलाब नहीं उमड़ता। प्राय: सभी गणगौर उत्सवों में स्थानीय एमएलए, सांसद या पार्षदों को अतिथि के दौर पर बुलाया जाता है। पर गीतों के प्रति वह ललक नहीं देखी गई। मारवाड़ी समाज या माहेश्वरी समाज की कई संस्थाओं के गणगौर उत्सव में शरीक होने का अवसर प्रा हुआ। एक कार्यक्रम में क्षेत्र के सांसद और विधायक भी शामिल हुए। बहुत देर तक इन्तजार करवाने के बाद वे आये। उनका स्वागत सम्मान हुआ। उन्होंने गणगौर को सांस्कृतिक उत्सव बताते हुये संस्कृति के महत्व के बारे में अपने श्रोताओं को ज्ञान दिया। नारी के सम्मान की बात कही और एक महिला विधायक ने कहा कि गणगौर का उत्सव नारी के सम्मान का ही प्रतीक है। उनके कार्यक्रम स्थल से रुकसत होने के तुरंत बाद गीत गाये एवं उन पर पुरुषों एवं महिलाओं ने जमकर नृत्य किया। चालू फिल्मी गीतों की धुन पर मां गवरजा की प्रशस्ती की गई। ''अंखियों से गोली मारे - लड़का कमाल का'' इस पोपुलर गाने की दर्ज पर गवरजा गीत और उस पर कैसा नाच हो सकता है - उसकी भी कल्पना आप कर सकते हैं। और फिर इसी तरह चुने हुये हिट गानों पर मां गरवजा की आरती में हमारे तथाकथित सांस्कृतिक कर्मियों ने खूब रंग जमाया।
गणगौर पर सैकड़ों लोकगीत हैं जो राजस्थान के गांव-गांव में गाये जाते हैं। सभी कर्णप्रिय हैं एवं भावुकता से ओतप्रोत। हम भाषणों में राजस्थानी की सौंधी माटी की सुगन्ध की चर्चा करते नहीं थकते पर जब वक्त आता है अपने सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करने का तो हम गवरजा को भी अपनी विभत्स मानसिकता से नहीं बख्शते। ''अंखियों से गोली मारे लड़की कमाल....'' की धुन पर गवरजा गीत सुनकर किसी युवा या युवती के मन में क्या बीतती होगी? सांस्कृतिक संस्थाओं के मंच से यह सब खेल होता है और हम तमाशा देखने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। कहां है हमारी संस्कृति की गरिमा जिसके आधार पर हम कहते हैं ''युनान मिश्र रोमां सब मिट गये जहां से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।'' समाज के कर्णधारों को इस पर सोचना चाहिये। लोकगीतों की परम्परा से हटकर हम अपनी आस्थाओं एवं मान्यताओं को इसी तरह प्रदूषित करते रहेंगे तो दुनिया की अनेक लुप्त सभ्यताओं एवं संस्कृतियों की सूची में हम भी शुमार हो जायेंगे। यह आत्म वेदना भी है....एक चेतावनी भी।
आपका प्रश्न बहुत ही समसामयिक है सभी भजनों को फिल्मी तर्ज पर गाने का एक दौर चल रहा है जिसे रोकनै का प्रयास जरूरी है। हमारी सांस्कृतिक विरासत पर खतरा है आपने ये प्रश्न उठा कर आपने सांस्कृतिक सचेतनता का परिचय दिया है हम सभी को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और ऐसे कार्यक्रम का बहिष्कार करन चाहिए । - डॉ वसुंधरा मिश्र
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