क्या थी होली
अब क्या हो! ली!
हमारे देश में कई जगहों की और कई तरह की होली विख्यात है। बरसाने की होली, वृन्दावन की होली, ल_मार होली, राधाकृष्ण की होली, फूलों की होली। होली खेलते भी हैं लोग अपने-अपने तरीकों से। बचपन में राजस्थान में अपने गांव में घर से कुछ दूर एक चौरास्ते पर बड़ा सा कुंड को रंग से भर दिया गया। फिर जो भी उधर से गुजरे दो-चार लोग उसे पकड़ कर ले आते और कुंड में डुबा देते। चारों तरफ खड़े लोग अट्टहास करते। पहले तो कुंड में डाला गया व्यक्ति गुस्साता और फिर थोड़ी देर में वह उस भीड़ का हिस्सा बन जाता जो दूसरों को डुबोने पर जोर से हंसते। कई जगहों में कीचड़ की बदबूदार होली खेलते हैं। बच्चे टोली बनाकर एक-दूसरे के घर जाकर अपने मित्र को घर से बाहर निकलने पर मजबूर करते हैं। पहले उसको रंगों से सराबोर करते फिर टोली में शामिल होगर दूसरे घर जाते। स्त्रियां भी अपनी टोली में रंग, गुलाल खेलती हैं। पूरा मोहल्ला रंगमय हो जाता था। धीरे-धीरे होली का स्वरूप बदला, होली में कई विकास आये पर होली का मूल तत्व आज भी बरकरार है।
होली किसी धर्म का पर्व होने के बदले एक सांस्कृतिक पर्व ज्यादा है। बल्कि समाज का वह तकनीक है, जिससे इसमें बहुत सी संस्कृतियां समा सकीं। जिस हिन्दू-मुस्लिम को एक-दूसरे के विरोधी के रूप में परोसा जा रहा है, उनके बीच भी होली ने कमाल का सम्बन्ध बनाया था। अनेक मुस्लिम कवियों ने होली की नज्में और कवितायें लिखी हैं। कइयों ने कृष्ण भक्ति को एकदम डूब कर गाया है। अमीर खुसरो ने 13वीं सदी में लिखा ''मोहे अपने ही रंग में रंग दे ख्वाजा जी, मोहे सुहागन, रंग बसंती रंग दे'' तो 17वीं शताब्दी में बाबा बुल्ले शाह ने लिखा कि ''होरी खेलूंगी कह बिस्मिल्ला'', जहांगीर मुहम्मद शाह रंगीला, बहादुर शाह जफर और ऐसे कई बादशाहों ने धर्म की बंदिश से ऊपर उठकर होली को अपनाया। निश्चित रूप से यह सब केवल बादशाहों की चाहत मात्र से ही नहीं हो रहा होगा, बल्कि समाज में समन्वय की प्रक्रिया चल रही होगी। इसी का परिणाम था कि गांव में होली गाने वाली टोलियां हिन्दू-मुस्लिम घरों में अंतर नहीं करते थे। सारा गांव कई दिनों तक होली के रंग में डूबा रहता था।
होलिका और हिरणकश्यप की बहु प्रचलित कहानी के अलावा एक और कहानी जुड़ी है होली के साथ। शिव का काम पर क्रोध करना और फिर उसे भस्म कर देना और अंत में काम की पत्नी रति के आग्रह पर उसे केवल भाव के रूप में वापस जीवित करना। यह कहानी बहुत प्रचलित तो नहीं है पर काफी रोचक है। इसके मनोविश्लेषण की जरूरत है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह समाज के काम-संबंधी विकार के शोधन का भी एक महापर्व है। शायद यही कारण है कि होली का नाम आते ही हम रोमांचित हो जाते हैं। रोमांस का भाव उमड़ पड़ता है। एक गुदगुदी होती है। और यह याद दिलाती है कि प्रेम वासना नहीं है, बल्कि एक भाव है, शरीर से ऊपर उठ आत्मा तक पहुंचने का एक रास्ता है। इसी रास्ते का खोजी चैतन्य महाप्रभु का यह जन्मदिन भी है। इसलिये बंगाल में यह धार्मिक उत्सव भी है। चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल में होली उत्सव का रुपांतरण कर श्रीकृष्ण की दोलयात्रा का प्रचलन किया। दोलयात्रा का महत्व क्या है? चैतन्य महाप्रभु ने लोगों को श्री कृष्ण के मंदिर में जाकर वहां पहले श्री कृष्ण को अबीर लगाकर उसके बादअपने लोगों के बीच अबीर खेलने को कहा और बाद में मिठाई मालपुआ खाकर लोगों को आनन्दोत्सव मनाने का परामर्श दिया। चैतन्य महाप्रभु के समय जिनके साथ रंग खेलना होता था, उनसे अनुमति लेनी पड़ती थी।
इसलिए होली की सार्थकता इसमें ज्यादा है कि हम प्यार के रंगों से होली खेलें। जिस तरह ढेर सारे रंग एक साथ मिलकर होली बन जाते हैं, ठीक उसी तरह जब हम प्यार के सारे रंग मिलाते हैं तो हम गंगा-जमुनी तहजीब बन जाते हैं। फिर होली सिर्फ हिन्दू का त्यौहार नहीं रह जाता - सारे धर्मों का हो जाता है या यूँ कहें धर्म की सीमाओं से ऊपर उठकर मानवीय संवेदना का पर्व बन जाता है।
शायर कैसर शमीम ने एक बड़ा ही प्यार भरा शेर कहा है - मेरा मजहब इश्क का मजहब जिसमें कोई तफरीक नहीं / मेरे हलके में आते हैं ''तुलसी'' भी और ''जामी'' भी..... यह शेर भारत की साझी विरासत और गंगा-जमुनी तहजीब को बयान करता है। हमारी संस्कृति एक मिली-जुली और समृद्ध संस्कृति है। हम अलग-अलग धर्मों में यकीन करते हुए भी सभी त्यौहारों का लुत्फ साथ मिलकर उठाते रहे हैं, गंगा-जमुनी संस्कृति ही हमारी पहचान है।
त्यौहार हमें विरासत में मिले हैं। हमारी संस्कृति के पेड़ पर अनेकों त्यौहार खिलते हैं। सदियों से होली-दीवाली, ईद, क्रिशमस,बैसाखी हम मिल-जुलकर मनाते आ रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में कुछ लोगों ने इन त्यौहारों में भी भेदभाव का रंग घोल दिया है। हमने जानवरों, चिडिय़ों, भाषाओं को भी धर्मों से जोड़ दिया है। हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा कहा जाने लगा है, तो उर्दू को मुसलमानों की। गाय हमारी है - बकरी मुसलमानों की। कुछ लोग गेंदा को हिन्दू फूल, तो गुलाब को मुस्लिम फूल कहते हैं। प्रेम के गीत लुप्त होते जा रहे हैं। राधा से रंग खेलने का आग्रह खत्म हो गया है। तो क्या हम गृहयुद्ध जैसी स्थिति की ओर जाने या अनजाने बढ़ रहे हैं?
होली का तकाजा है कि इस माहौल से बाहर आयें। प्यार के सौहाद्र्र के रंगों से होली खेलनी होगी।
होली मुबारक!


गंगा जमुनी संस्कृति का उत्कृष्ठ त्यौहार है होली जिसके रंग में सभी रंग जाते है,अपने धर्म,जाति से ऊपर उठ कर।
ReplyDeletePrem ke rang hi manvata ke asali rang hai holiprem banaye rakhane ke liye pyara festival h.badhayee new thoughts ke liye
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