सफेद झूठ का मायाजाल

सफेद झूठ का मायाजाल

वैसे झूठ अपने आप में कोई नई चीज नहीं है। इसकी समस्या सदियों पुरानी है। इसके समाधान की सीमाओं का किस्सा भी शायद उतना ही पुराना है। लेकिन सोशल मीडिया के इस नए दौर में झूठ ने एक नए तरीके से हमारे जीवन में दस्तक दी है। इसका नाम है फेक न्यूज। यानी ऐसी खबरें, जो होती तो झूठ हैं, लेकिन अक्सर हमारे सामने इस तरह से आती हैं कि बहुत से लोग उन पर विश्वास कर लेते हैं। जब कोई कहता है कि संयुक्त राष्ट्र ने भारत के राष्ट्रगान जन गण मन... को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान घोषित किया है, तो हम आसानी से मान लेते हैं। हालांकि दिक्कत अक्सर ऐसी खबरों से नहीं होती। दिक्कत अक्सर उन खबरों से होती हैं, जो अफवाहें फैलाती हैं। जो लोगों, समुदायों या राष्ट्रों के बारे में नफरत फैलाती हैं। जो लोगों में हिस्टीरिया पैदा करती हैं और दंगों व हत्याओं का कारण बनती हैं। यह सच है कि बहुत से लोग ऐसी झूठी खबरों से अपने हित साधते हैं,  किन दुनिया भर के समाजशास्त्रियों को परेशान करने वाला बड़ा सवाल यह है कि लोग ऐसी खबरों पर सहज ही विश्वास क्यों कर लेते हैं? ऐसे ही एक और सोशल मीडिया से प्रसारित खबर का जायजा लीजिए:-

- गुजरात सरकार को संयुक्त राष्ट्र संष्ट्र की इन्टरनेशनल काउंसिल ने दुनिया की दूसरी सबसे श्रेष्ठ सरकार घोषित किया। दस वर्ष पहले उस पर 50 हजार करोड़ वल्र्ड बैंक का लोन था। पर आज उसने वल्र्ड बैंक में 1 लाख करोड़ जमा कर रखा है। गुजरात में बार, नहीं- पावरकट नहीं- एक सौ फीसदी स्त्रियाँ शिक्षित हैं - भारत के कुल निर्यात का 15 प्रतिशत सिर्फ गुजरात से है - शेयर बाजार में 30 प्रतिशत निवेश सिर्फ गुजरात से हैं। वगैरह-वगैरह। अन्त में समाचार प्रचारित करने वाला सवाल भी करता है और जवाब भी देता है। - भारत का असली आदर्श कौन है -  गांधी या गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी। सोशल मीडिया पर यह समाचार भेजने वाले सज्जन को मैंने लिख भेजा - भाई साहब इस पूरे समाचार में पैदाइशी भूलें हैं। क्योंकि संयुक्त राष्ट्र ने तो इस तरह किसी प्राप्त को अच्छा-बुरा घोषित करता है और न ही किसी भारतीय प्रान्त का धन संयुक्त राष्ट्र में पहले या आज जमा है। मनोवैज्ञानिकों के पास इसके दो अलग-अलग जवाब हैं। पहला जवाब हमें बताता है कि जो खबरें हमारे पूर्वाग्रहों से मेल खाती हैं या उन्हें पुख्ता करती हैं, उन्हें हम सच मान लेते हैं। मसलन, हम अगर यह मानते रहे हैं कि हमारा राष्ट्रगान सबसे अ‘छा है, तो हम इस खबर पर सहज ही यकीन कर लेंगे। लेकिन कुछ अन्य मनोवैज्ञानिकों की राय इस मामले में अलग है। उनका कहना है कि हम झूठी खबरों पर यकीन इसलिए कर लेते हैं, क्योंकि हम तथ्य को जांचने और विश्लेषण करने या फिर कई बार सिर्फ अपनी सामान्य बुद्धि का इस्तेमाल करने के मामले में आलसी होते हैं। जैसे अगर हम सिर्फ अपनी सामान्य बुद्धि का इस्तेमाल करते या तथ्य जानने की कोशिश करते, तो आसानी से यह समझ जाते कि संयुक्त राष्ट्र इस तरह का संगठन नहीं है, जो देशों की ऐसी चीजों की तुलना करके श्रेष्टता का इनाम बांटता हो। लेकिन अब मनोवैज्ञानिकों इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ये दोनों ही चीजें सच हैं, और अलग-अलग तरह से फेक न्यूज में अपनी भूमिका निभाती हैं। यही कारण है कि फेक न्यूज का सबसे ज्यादा शिकार वही होते हैं, जो किसी धारण के मामले में कट्टर होते हैं। वही उसके प्रसारक भी बनते हैं। जो उस धारण को शक की नजर से देखते हैं, वे कम से कम उस फेक न्यूज को फॉरवर्ड तो नहीं करेंगे। लेकिन ऐसी फर्जी खबरें, जिनमें धारणाओं के आग्रह प्रबल नहीं होते, उस पर भी बहुत से लोग विश्वास कर लेते हैं, क्योंकि वे सच जानने की जहमत नहीं उठाते। बहुत से समाजशास्त्री यह भी मानते हैं कि फेक न्यूज कोई नई चीज नहीं है। यह किसी न किसी रूप में हमारे साथ हमेशा से ही रही है। जिसे कुछ समय पहले तक हम अफवाह कहते थे, वह भी एक तरह से फेक न्यूज ही है। कहा जाता था कि दुनिया में सबसे तेज रफ्तार अफवाह की होती है। यही अब फेक न्यूज के बारे में भी कहा जाता है। सोशल मीडिया ने फेक न्यूज को एक संस्थागत रूप और एक स्थायित्व दे दिया है। महीनों या बरसों पुरानी कोई फेक न्यूज भी आपको ताजा खबर की तरह मिल सकती है। लेकिन अभी कोई यह नहीं जानता कि इसे आखिर रोका कैसे जाए?
इस तरह की बेबुनियादी खबर से लोग भ्रमित होते हैं और झूठ को ही सच समझ बैठते हैं। इसके विरुद्ध एक सामाजिक अभियान चलना चाहिये। कम से कम किसी खबर को समझे या उसे जांच किये बिना उसे फारवर्ड कर देना या लिखना कि ''फारवाडेड एज इट इज'' की सफाई काफी नहीं है। बल्कि मैं कहूंगा कि जो खबर अखबार में छोटे या बड़े रूप में नहीं छपी हो, वह सोशल मीडिया पर आने से समझ लीजिए कि दाल में कुछ या अधिक काला है।

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