शहीदों के चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
श्रीनगर नेशनल हाईवे पर पुलवामा जिले के अवंतिपुर के पास सीआरपीएफ के काफिले पर आतंकी हमले में चालीस जवान शहीद हो गये। पूरे देश ने इन शहीद जवानों को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी। जैसे-जैसे जवान का शव उनके गांव पहुंचा एक मर्मस्पर्शी ²श्य उपस्थित हो गया। कुछ के आंखों में आंसू थे तो किसी की मां-बहन-पत्नी छाती पीट-पीट कर बिलख रही थी।
जहां तक घटना का प्रश्न है, इसमें कहीं न कहीं सुरक्षा-सतर्कता में चूक अवश्य हुई है। इतने बड़े काफिले की सुरक्षा के लिए रोड ओपनिंग पार्टी की सतर्कता बहुत आवश्यक है। आतंकवादियों की एसयूवी गाड़ी ने काफिले के साथ चलते हुए यह घटना कर दी। इस संदिग्ध गाड़ी को सफलतापूर्वक रोका नहीं जा सका, जिसका खामियाजा जवानों को इतनी दर्दनाक शहादत के रूप में भुगतना पड़ा।
जहां तक घटना का प्रश्न है, इसमें कहीं न कहीं सुरक्षा-सतर्कता में चूक अवश्य हुई है। इतने बड़े काफिले की सुरक्षा के लिए रोड ओपनिंग पार्टी की सतर्कता बहुत आवश्यक है। आतंकवादियों की एसयूवी गाड़ी ने काफिले के साथ चलते हुए यह घटना कर दी। इस संदिग्ध गाड़ी को सफलतापूर्वक रोका नहीं जा सका, जिसका खामियाजा जवानों को इतनी दर्दनाक शहादत के रूप में भुगतना पड़ा।
सुरक्षा एवं सैनिक कार्रवाई की बारीकियों को आम आदमी नहीं समझता। देश की सुरक्षा के साथ जब खिलवाड़ होता है और सैनिक जब शहीद होते हैं तो उसका गुस्सा होना स्वाभाविक है। पांच साल में सत्रह हमले हुये जिनमें हमारे 136 जवानों की शहादत हुई। आम नागरिक भी मारे गये। हर बार सरकार की ओर से कड़ी कार्रवाई करने की घोषणा हुई। हर घटना के बाद लगा कि इस बार हम कोई बड़ा एवं कड़ा कदम उठायेंगे। कहीं-कहीं हमने बदला भी लिया पर ये घटनायें रुकी नहीं, होती गई। सर्जिकल स्ट्राइक का बार-बार जिक्र किया गया एवं उसकी सफलता का दावा करते हुए कहा गया कि उसने हमलावरों को सबक सिखा दिया है। किन्तु 14 फरवरी को पुलवामा में जो हुआ उतने बड़े संहार का सोचा भी नहीं गया था। सर्जिकल स्ट्राइक जमीनी स्तर पर कितना प्रभावशाली हुआ, इसीसे पता लगता है।
जवानों की शहादत पर केन्द्र और राज्य सरकारें उनके आश्रित परिजनों को करोड़ों रुपये बांटती है। सुनने में हमारी भावनाओं को सुकून मिलता है पर लगता है कि यह एक रस्म अदायगी बन गई है। सैनिकों के परिजनों को देखना सरकार का प्रशासनिक और नैतिक कर्तव्य है। शहीद के आश्रित लोगों को इतनी सहायता मिलनी चाहिये कि उसे कभी कोई आर्थिक परेशानी नहीं हो। यहां राज्य सरकारों एवं निजी संस्थाओं द्वारा शहीदों पर सहायता की बौछार शहादत का अपमान लगती है। सरकार के संरक्षण की कमजोरी प्रतीत होती है। यह क्रिकेट मैच नहीं है कि जीतने वाले खिलाडिय़ों को हम नोटों से लाद दें। देश में सुरक्षा बलों की सामाजिक सुरक्षा का प्रश्न है। इसमें सरकार को किसी भी तरह की कुताही नहीं बरती जानी चाहिये।
देश में कई स्थानों पर मोमबत्ती जुलूस निकल रहे हैं। शान्ति मार्च हो रहा है। सिर्फ राजनीतिक संगठन ही नहीं सामाजिक, धार्मिक और क्रीड़ा जगत यहां तक कि फिल्मी सितारों एवं संगठनों ने भी सुरक्षा बलों की शहादत पर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी है। सभी धर्म, जाति, क्षेत्र के संगठनों ने घटना पर गुस्सा प्रकट करने एवं सेना के साथ खड़े होने की भावना में कोई कोर कसा नहीं छोड़ी। मुस्लिम संगठन भी पीछे नहीं थे। यह हमारे देश की खूबी रही है कि संकट में पूरा देश एक हो जाता है। चीन का भारत पर जब आक्रमण (1962) हुआ तो पूरे देश में भावनाओं का ज्वार उमड़ गया था। लोगों ने सैनिकों के लिए वेतन, गहने न्यौछावर कर दिये थे। इस भावना को ही राष्ट्रीय संहिता या एकता कहते हैं। इसी संकट में पता लगता है कि राष्ट्र एक है। लोग जाति, धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठते हैं।
पुलवामा हमले के बाद देशभर में जो प्रतिक्रिया हुई उससे एक शुकून हुआ कि वक्त आने पर हम एकबद्ध हो जाते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि जब आपात या संकट काल गुजर जाता है हम धार्मिक संकीर्णताओं एवं जातिगत स्वार्थों में फिर बंट जाते हैं।
पुलवामा हमले के बाद जो भावनाओं का ज्वार उमड़ा है उसे बनाये रखना सरकार के हाथ में है- राजनीतिक पार्टियों के अख्तियार में है। लेकिन हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल का निहित स्वार्थ इसी में है कि हम धर्म और जाति में बंट जायें। इससे उन दलों को लाभ मिलता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि चुनाव के दौरान जातिगत एवं धार्मिक भावनाओं को उभारा जाता है। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की बात की जाती है। हमारे देश में कमोबेश सभी राजनीतिक दल भावनाओं को भुनाते हैं। कोई अपवाद नहीं है।
शहीदों के लिये जज्बात उबल रहा है। सैनिक की एक ही जाति होती है कि वह देश की सुरक्षा करता है। अपने प्राणों को हथेली पर रख कर हमारी रक्षा करता है। उनके प्रति देश का भी कर्तव्य है। सैनिकों के प्रति हमारी भावनाएं स्वाभाविक है। पर हम सैनिक का तभी सम्मान करते हैं जब वह शहीद होता है। सीमा की चौकसी करते समय हमारे जज्बात उसके साथ नहीं होते। शहीद होने के बाद हमारी सारी भावनाएं उफन जाती है। शहीदों की चिताओं पर या बलिबेदियों पर फूल चढ़ाने के लिये सैलाब उमड़ पड़े इसके लिए जवानों की शहादत जरूरी है, यह सोचकर ही आत्मग्लानि होती है। देश की सुरक्षा एवं सुरक्षाकर्मियों का सम्मान हमारे राष्ट्रीय चरित्र में होना चाहिये। इसके लिए हमें सैनिकों की शहादत का इन्तजार न करना पड़े।

चालीस जवानों की मौत ने फिर दहला दिया असुरक्षित हो गए हैं भारत को कब असली आजादी मिलेगी ईश्वर से प्रार्थना है कि जवानों के परिवरो को शक्ति प्रदान करे नमन
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