पुस्तक मेले में हिन्दी


पुस्तक मेले में हिन्दी
कोलकाता के पुस्तक मेला की विश्व पैमाने पर ख्याति है। यह विश्व में गैर व्यवसायिक मेलों में सबसे बड़ा है। 43वां पुस्तक मेला 31 जनवरी से शुरू हुआ और 10 फरवरी को उसका समापन है। दुर्गापूजा के बाद प. बंगाल का गौरव यहां का पुस्तक मेला है। 10 दिन तक चलने वाले इस पुस्तक मेले में लगभग पन्द्रह लाख लोगों का आगमन से ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दस दिनों में मीडिया और यहां के लोगों के दिल दिमाग पर ''बोई मेला'' हावी रहता है। मेले के दौरान बुद्धिजीवियों का यह मिलन बिन्दु एवं अड्डा बन जाता है। गोष्ठियां चलती है, पुस्तकों का विमोचन होता है और हर भाषा के शीर्ष लेखक इस दौरान पुस्तक मेले का दौरा करते हैं।
पुस्तक मेले में हिन्दी भाषियों की दिलचस्पी अब बढऩे लगी है फिर भी हम अपनी अपेक्षित भूमिका से कोसों दूर हैं। हमारा गौरव है कि हिन्दी का पहला समाचार पत्र इसी कलकत्ता शहर से सन् 1826 में प्रकाशित हुा था। हिन्दी का पहला एमए भी कलकत्ता विश्वविद्यालय से था। सन् 2001 में सीएमडीए की रिपोर्ट के अनुसार कोलकाता में 63 प्रतिशत गैर बंगाली हैं। गैर बंगाली जनसंख्या का 88 प्रतिशत हिन्दीभाषी हैं यानि कलकत्ता महानगर में या वृहत्तर कोलकाता में लगभग 50 लाख हिन्दीभाषी हैं। लेकिन पुस्तक मेले में दस दिनों में हिन्दीभाषियों का फूटप्रिन्ट 25-30 हजार से अधिक नहीं होता। अब कुछ वर्षों से हिन्दी भाषी स्कूलों के छात्र-छात्रायें झुण्ड में पुस्तक मेला में देखने जाते हैं।

पिछले वर्ष पुस्तक मेले में कुल 600 छोटे-बड़े बुक स्टॉल थे। इनमें हिन्दी के मात्र 37 स्टॉल थे। पिछले वर्षों के मुकाबले इनकी संख्या बढ़ी है। हिन्दी पुस्तकों की खरीद किन्तु नगण्य है। हिन्दी के एक बड़े प्रकाशक ने बताया कि पुस्तक मेले में कुल खरीद 10 करोड़ रुपये की होती है उसमें हिन्दी पुस्तकों की हिस्सेदारी 10 लाख रुपये से अधिक की नहीं होती। प्रकाशक ने स्वीकार किया कि हिन्दी पुस्तकों की कीमतें अपेक्षाकृत ज्यादा होती है उसके बावजूद हिन्दी पुस्तकों की बिलिंग नगण्य है। हिन्दी की जो पुस्तकें बिकती हैं उनमें एक बड़ा भाग धार्मिक पुस्तकों का होता है। उसके पश्चात् लोकप्रिय या मशहूर लेखकों की किताबें हैं। नवोदित लेखक नहीं बिक पाते। उन्हें पुस्तक मेले से निराशा ही हाथ लगती है। पुस्तक मेले में जो साहित्यिक गोष्ठियां होती है उनमें कोई हिन्दीभाषी वक्ता नहीं देखा जाता। गोष्ठियों में हिन्दी के प्रमुख रचनाकारों को भी बुलाया नहीं जाता।
पुस्तक मेले में हिन्दी को लेकर कई बार हिन्दी के साहित्यिक संगठनों में विचार मन्थन हो चुका है। अफसोस जाहिर किया गया, शर्मिन्दगी महसूस की गई किन्तु इससे समस्या नहीं सुलझी। बंगाली समाज में पुस्तकें की खरीद में महिलाओं की बड़ी भूमिका है। वे अपनी पसन्द की किताबें खरीदती हैं। हिन्दी भाषियों में पुस्तक चयन के मामले में महिलायें हाशिये पर हैं। हमारे समाज में एक वैवाहिक अनुष्ठान में लाखों रुपये फूंकना आम बात है। किन्तु या तो हम पुस्तक मेले जाते ही नहीं या फिर जाते हैं तो फूड स्टॉल में नाश्ता करने के पश्चात् एक परिवार दो-तीन सौ रुपये से ज्यादा की पुस्तकें नहीं खरीदता। अधिकांश लोगों को जानकारी ही नहीं होती कि हिन्दी की कौन सी नयी पुस्तक प्रकाशित हुई है।
कोलकाता पुस्तक मेले की यह दु:खद स्थिति है लेकिन पटना में पुस्तक मेले में हिन्दी पुस्तकों के लिये अपार उत्साह है। यही स्थिति इलाहाबाद और भोपाल में है। इसका एक कारण यह भी है कि कोलकाता में बाहर के राज्यों से आने के कारण हिन्दी भाषियों का अधिकांश समय रोजी-रोटी जुगाड़ करने में चला जाता है। पुस्तक पढऩे के लिए समय बहुत कम बचता है। जो सम्पन्न लोग हैं उनमें पुस्तकों के प्रति रुचि नहीं है। शिक्षक समाज की स्थिति तो बड़ी विकट है। हमारा शिक्षक वर्ग तो बेचारा दैनिक पत्र ही नहीं पढ़ पाता। स्कूल में पढ़ाने के बाद ट्यूशन में ही सारा समय गुजर जाता है। अधिकांश हिन्दी भाषी शिक्षक सैलून, मोदीखाना, चाय दुकान पर पड़ा पत्र ही उलट कर देख लेते हैं।
हम पुस्तकों का उपहार नहीं देते। बंगाली समाज उपहार में पुस्तकें देता है। किसी बंगाली को बंगला अखबारों के शारदीय अंक (विशेषांक) का उपहार दीजिये तो वह उसके लिए अविस्मरणीय होता है। हमारे यहां दो महिलायें मिलती हैं तो साड़ी या गहनों की चर्चा करती है। दो पुरुष मिलते हैं तो व्यापार या स्वास्थ्य की चर्चा कर लेते हैं। बंगाली समाज की दो महिलायें मिलने पर बंगला की हाल में कौन सी पुस्तकें पढ़ी है, की चर्चा होती है। यही फर्क है दो समाज में। शादी-विवाह, जन्मदिन की पार्टियों में हम लाखों रुपये खर्च करते हैं, पर पुस्तक खरीद का हमारा कोई बजट नहीं होता। मेरा अनुभव तो और भी कटु है। कई वर्ष पूर्व मैं ''छपते छपते'' के दीपावली विशेषांक कुछ प्रमुख लोगों को देने जाता था। उनमें कुछ तो सहर्ष रख लेते लेकिन कुछ महानुभाव ऐसे भी थे, वह यह कह कर लौटा देते थे कि अभी वे दिवाली के कार्यों में व्यस्त हैं, अत: किताब रखने की न जगह है न समय। पुस्तक मुफ्त में भी नहीं रखना चाहते।
हिन्दी भाषियों में हिन्दी समाचार पत्र पढऩे की भी प्रवृत्ति सीमित है। परिणामस्वरूप कोलकाता से प्रकाशित सारे हिन्दी के अखबारं की दो लाख प्रतियां भी नहीं बिकती जबकि बंगला के सबसे बड़े अखबार की प्रसार संख्या दस लाख से ऊपर है। परिणामस्वरूप सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक क्षेत्र की समझ हमारे समाज के लोगों को कम होती है। बंगाली तार्किक होता है, किसी विषय पर जानकारी रखता है। हमारे समाज में फिल्मी गीतों पर अन्ताक्षरी होती है। साधारण ज्ञान की प्रतियोगिता में भी फिल्मी ज्ञान के प्रश्न होते हैं।
यह वस्तुस्थिति है। हिन्दीभाषियों में धनोपार्जन एवं फजूलखर्ची का जो आलम है, उसमें परिवर्तन आना निहायत जरूरी है। आज के किशोर एवं युवकों में टीवी के कारण जानकारियां बहुत हैं किन्तु उनका रुझान अंग्रेजी की तरफ है। हिन्दी की जानकारी को वे सेकेन्डरी मानते हैं। अंग्रेजी माध्यम के स्कूल तो गली-गली में खुल गये हैं। अब नयी पौध न ठीक से हिन्दी और न ही ठीक से अंग्रेजी लिख व बोल पाती है।
पुस्तक मेला एक मापदण्ड है। बैरोमीटर है। यह कटु सत्य है कि धन बल के सहारे हम बहुत दिनों तक अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कर सकेंगे।

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