आरक्षण : रहने को घर नहीं
है सारा जहाँ हमारा...
1978 में मंडल आयोग ने पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की, जिसे 11 वर्ष बाद वी पी
सिंह सरकार ने मंजूर कर भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया। पिछड़ों की राजनीति ने
भारतीय जनमानस को चौंका दिया। याद रखिए कि 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ा वर्ग को
आरक्षण दिलाने के लिए अपनी सरकार कुर्बान कर दी थी। पिछड़े वर्ग को आरक्षण तो मिल
गया पर वी पी सिंह और उनकी पार्टी कभी सत्ता में नहीं लौटी। आगे चलिये - सन् 2014 में संप्रग का
खाद्य सुरक्षा कानून, उससे पहले मुसलमानों और जाटों को आरक्षण देने का कदम क्या
राजनीतिक लाभ के मकसद से उठाये गए कदम नहीं थे? लेकिन इनमें से किसी का चुनावी लाभ कांग्रेस को
नहीं मिला।
आरक्षण का मुद्दा
देश में सामाजिक वैमनस्य का कारण बनता जा रहा था। देश में दो वर्ग बन गए थे। एक
जिसे आरक्षण कालाभ मिला है और दूसरा जो इससे वंचित है। आज समाज का हर तबका आरक्षित
वर्ग में शामिल होने के लिए आतुर है। महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में
पाटीदार और हरियाणा में जाट पिछड़ा वर्ग में शामिल होने के लिए हिंसक आंदोलन तक कर
चुके हैं। जो जातियां पिछड़ी हैं े अब दलित और आदिवासी बनना चाहती हैं। यह ऐसी
होड़ है जिसका अंत कहां जाकर होगा, कहना मुश्किल है। बहुत से आरक्षण विरोधियों को लगने लगा था
कि यह अंधी दौड़ एक दिन आरक्षण के खात्मे की वजह होगी।
आर्थिक आरक्षण पर
विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से उठाया गया जो सवाल महत्वपूर्ण है वह यह कि एक ऐसे
समय जब सरकारी नौकरियां बढ़ नहीं रही तब आर्थिक तौर पर कमजोर वर्गों के लिए दस
प्रतिशत आरक्षण से क्या हासिल होने वाला है? रोजगार के अवसर बढ़ाकर ही लोगों की आकांक्षाओं
को पूरा किया जा सकता है। समस्या केवल यह नहीं है कि सरकारी नौकरियां कम हो रही है, बल्कि यह भी है
कि विभिन्न विभागों में बड़ी संख्या में पद रिक्त हैं। एक तथ्य यह भी है कि
विभिन्न सरकारी विभागों में आरक्षित वर्गों के भी तमाम पद रिक्त हैं। आखिर इस हालत
में आरक्षण का मकसद कैसे पूरा होगा?
एक मूलभूत प्रश्न
है कि आरक्षण की बात उठने के मूल में केन्द्र बिन्दु क्या है? क्या आरक्षण
गरीबी उन्मूलन का ब्रह्मास्त्र बनाया गया था। बाबा साहब अम्बेडकर की आरक्षण के
पीछे क्या सोच थी। क्या कभी पहले सोचा गया था कि गरीबी से निपटने के लिए आरक्षण
रामबाण है। सच तो यह है कि आरक्षण के सवाल पर हम भटकते-भटकते बहुत दूर चले गये
हैं। आरक्षण दरअसल गरीबी हटाओ के परिपेक्ष्य में नहीं था - गरीबी हटाने के
उद्देश्य से आरक्षण की बात नहीं सोची गई थी, अपितु इसका उद्देश्य उन जातियों, पिछड़े वर्गों का
प्रतिनिधित्व था जो सदियों से उपेक्षित, सामाजिक अस्पृश्यता एवं घृणा का दंश झेल रहे
थे। उन हरिजनों एवं पिछड़ी जातियों के लिये आरक्षण उनके लिये एक जादुई कदम था जो
अंधेरे में धकेल दिये गये थे। गरीब तो ब्राह्मण भी रहा है। हमारे देश की हर लोक
कथा की पहली पंक्ति होती है - गाँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। लेकिन ब्राह्मण
सामाजिक उपेक्षा एवं बहिष्कार का शिकार नहीं हुआ। बल्कि वह गरीब इसलिये रहा
क्योंकि राजनीतिक सत्ता व आर्थिक बाहुबली का प्रिय पात्र होने के नाते उसे कभी
अपने लिये संघर्ष नहीं करना पड़ा। अन्य उच्च जाति जैसे क्षत्रिय, वैश्य भी सत्ता
के इर्द-गिर्द रहे जबकि दलित, हरिजन, डोम की छाया से भी परहेज रखने की हिदायत थी। गांवों में
हरिजनों एवं पिछड़ी जातियों की अलग बस्ती थी। उनके पानी पीने का कुआं अलग था। वे सवर्ण
के घर के सामने जूता पहन कर नहीं जा सकते थे, हाथ में चट्टियां लेकर जाना पड़ता था।
सुबह-सुबह उनका दर्शन अमांगलिक या अशुभ परिणाम का द्योतक था। राजाओं के सलाहकार
पंडित होते थे, बादशाह या सुल्तान को मौलवी राजतंत्र का धर्म बताते थे।
पिछड़ी एवं
उपेक्षित जातियों को मुख्य धारा में लाना एवं उन्हें समाज में न्यायोचित प्रतिष्ठा
दिलाना, आरक्षण का मूल
उद्देश्य था। गरीबी उन्मूलन से इसाक कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था। आरक्षण से गरीबी
दूर होगी, यह किसी
अर्थशास्त्री ने आज तक नहीं बताया। बहुत से लोगों के दिमाग में किन्तु सही है कि
पिछड़ों के आर्थिक विकास हेतु आरक्षण एक हथियार है। लेकिन यह धारणा सही नहीं है।
हरिजनों एवं पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने से सामाजिक बदलाव भी आया, इसमें सन्देह
नहीं है। गांवों के रूप-स्वरूप में तब्दीलियां आयीं। संसद,
विधानसभा, ग्राम पंचायतों
में उनकी आवाज मुखरित हुई। स्वाभाविक रूप से आर्थिक रूप से भी आरक्षित जातियों को
तो नहीं किन्तु उनके प्रतिनिधियों को लाभ मिला। सिर्फ नौकरी ही नहीं सरकारी उत्पाद
जैसे पेट्रोल, रसोई गैस, मदर डेयरी, खाद के वितरण आदि कार्यों में पिछड़ी जाति के लोगों को प्राथमिकता दी गई। उनका
अपना इलाके में कुछ रुतबा बना। इससे पिछड़ी जातियों की हीन भावना काफी हद तक
समाप्त हुई।
अभी आरक्षण का
मूल उद्देश्य हाशिये पर चला गया है। लोकसभा का चुनाव सन्निकट है एवं हिन्दी पट्टी
के तीन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की हार से सत्ताधारी दल आशंकित हो उठा कि 2019 में उसके हाथ से
दिल्ली न निकल जाये। पार्टी के लिए समस्या यह थी कि पिछले करीब एक साल से उसका
पारंपरिक समर्थक उससे नाराज था। 124वें संविधान संशोधन से शायद उसकी समस्या हल हो जाएगी, इसके आसार नजर आ
रहे हैं। यही नहीं इस एक कदम से उन्होंने राम मन्दिर के मुद्दे को भी पीछे धकेल
दिया है।
रोजगार मिले या न
मिले किन्तु सवर्ण आरक्षण से उनकी खिन्नता मिटेगी - हालांकि हस्र यही होना है कि -
''रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमाराÓÓ।

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