बुजु़र्ग परेशान न हों, युवा पीढ़ी पर भरोसा रखें
शुक्रवार को मारवाड़ी समाज के छात्र-छात्राओं में प्रतिभा सम्मान देने हेतु एक कार्यक्रम में पुरुलिया गया था। पहले भी कई सामाजिक कार्यक्रमों के सिलसिले में पुरुलिया गया हूँ। यहां का मारवाड़ी समाज सम्पन्न है,
सभी के कारोबार ठीक चल रहे हैं। सब मजे में हैं। सबसे अछी बात है तीन लाख की आबादी वाला यह शहर शांति है। कोई झगड़ा-फसाद नहीं होता। बंगाली समाज के साथ हिंदी भाषी परिवारों में समरसता है। एक-दूसरे की इज्तज करते हैं। पुरुलिया में सम्पन्नता का यह भी एक कारण है कि शातिं और सद्भाव के वातावरण में कामकाज हो रहा है।
समाज के कुछ वरिष्ठ और विशिष्ट लोगों से गुफ्तगू हुई। ऐसा लगा कि हमारे समाज में पचपन-साठ के ऊपर के तबके में एक अजीबो-गरीब परेशानी है। कुछ अनहोनी की आशंका में पौढ़ लोग तनाव झेल रहे हैं। उनकी चिंता है कि नयी पीढ़ी के साथ उनकी मानसिकता की खाई और चौड़ी होती जा रही है। नयी युवा पीढ़ी अपनी तरह से जीना चाहती है। पुरानी पीढ़ी अपने को अपने ही बच्चों से दूर पाती है। कुछ बच्चे मुम्बई, बंगलुरु आदि महानगरों में जाकर बस गये हैं या उच्च शिक्षा के लिये सुदूर विदेशों में जाकर बस गये हैं। स्वाभाविक है कि उनसे दूरियां हो गई है। उंहें ऐसा लग रहा है कि उनके पौत्र (तीसरी पीढ़ी) अपने कैरियर और जीवन को स्वतंत्रता के चलते उनसे दूर हो गई है। आपसी सम्बंध बस औपचारिक से रह गये हैं। कुछ लोगों को बच्चे के पहनावे को लेकर भी टेंशन है। लड़कियां भी पढ़-लिख रही हैं एवं अपनी स्वतंत्र जिंदगी बिताना चाहती है। परिवार के दायरे में उनका दम घुटता है। कुल मिलाकर हमारी बुजुर्ग पीढ़ी मानसिक विरक्ति का सामना कर रही है।
पुरुलिया के रवीन्द्र भवन के भव्य प्रेक्षागृह में आयोजित इस कार्यक्रम में लोग बड़ी संख्या में उपस्थित थे। मैंने देखा कि प्रतिभा सम्मान समारोह में छात्र या छात्रों के बदले उनके अभिभावकों ने आकर पुरस्कार या सम्मान ग्रहण किया। प्राय: उत्तीर्ण छात्र बाहर चले गये हैं। हालांकि उनके माता-पिता इस कार्यक्रम में पधारे और अपने बेटे-बेटियों या पोते-पोतियों की ओर से सम्मान ग्रहण किया। एक बालक प्रथम पोद्दार किसी बड़ी सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया। बड़ी भयावह परिस्थिति में उसने परीक्षा दी और अव्वल आया। उसे मेरे हाथों से पुरस्कार दिलाया गया। वह स्टेज पर नहीं आ सकता था तो मैंने ही नीचे उतर कर छात्र का सम्मान किया। पढऩे की उकंठा ने उसे संघर्ष के लिये प्रेरित किया और बड़ी विपरीत एवं असामाय स्थिति में पढ़कर उसने यह मुकाम हासिल किया। छात्र-छात्राओं के अभिभावकों ने स्टेज पर आकर अवार्ड लिये। कई लोगों ने कहा कि मेरा लड़का बंगलुरु, मुम्बई में कॉलेज में भर्ती है। पढ़ाई के साथ कहीं जॉब भी कर रहा है। बेटे की दिलचस्पी सामाजिक क्षेत्र में नहीं है। पिता से यादा दादा हैरान हैं। उनका मानना है कि बच्चों की शिक्षा के लिये पैसा पानी की तरह बहाया है। पर उनके मनानुसार परीक्षा फल नहीं हो पा रहा है। लड़कियों की उम्र बेसब्री की सीमा लांघ चुकी है। कई बड़े अलग भाड़े का कमरा लेकर या किसी पी.जी. में रहते हैं। कुल मिलाकर वे ऐसा महसूस कर रहे हैं कि परिवार बिखर रहा है। और परिवार का बुजुर्ग मूकदर्शक सा बन गया है। निश्चित रूप से यह समस्या है पर तस्वीर का दूसरा पहलू के भी आकलन की जरूरत है। किसी समय में परिवार राजस्थान में रहता था, परिवार का मुखिया कलकत्ता, बम्बई या मद्रास जाकर ''देशावर'' में रोजगार करता था। संघर्ष करके उसने अपनी जगह बनायी और बाद में परिवार को लाकर इन शहरों में मारवाड़ी उस संघर्ष में उगी हुई फसल को काट रहा है। आज वह खुशहाल है। मारवाड़ी परिवारों ने अपने उद्यम से कमाया और परिवार को स्थापित किया। आज फिर एक दौर शुरू हुआ है। हम कोलकाता में हैं - हमारे बच्चे बम्बई, बंगलौर में पढ़ रहे हैं, काम कर रहे हैं। कुछ विदेशों में जाकर
बसने लगे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि उन बच्चों की नीयति विदेशों में ही बसने की रह गई है जहां उसके बुजुर्ग जाना नहीं चाहते और वे उन्हें वहां बुलाना नहीं चाहते। उनकी अमेरिका, ब्रिटेन या अन्यत्र अपनी दुनिया है।
हम उनसे मोबाइल पर बात तो कर सकते हैं या लैपटॉप पर उनसे तस्वीर में रूबरू व चैटिंग कर सकते हैं पर बहू के हाथ की रोटी नहीं खा सकते या आपकी दवाई की फिक्र आपकी पत्नी करेगी या फिर घर का नौकर। पर यह स्थिति तो हमारी अपनी बनाई हुई है। इस फसल के बीज तो हमने ही रोपे थे। किन्तु सब जगह ऐसा नहीं है। यह अपवाद है। बाकी जगह नयी पीढ़ी अग्रसर है, उसका ज्ञान असीमित है। रोजगार के नये अवसरों का दोहन किया जा रहा है आदि-आदि। लड़कियों के मामले में तो क्रांतकारी परिवर्तन हुआ है। वे घर के मोर्चे एवं रोजगार दोनों मोर्चे पर काम कर रही है। बहुत सी गृहस्थियां कारोबार कर परिवार का ''सपोर्ट'' कर रही हैं। माता-पिता की दुरावस्था में दौड़ कर पहले घर बेटी ही आकर सम्हालती है। इस संवेदनशीलता पर आधुनिकता का असर अभी तक नहीं पड़ा है। नयी पीढ़ी के साथ संवाद स्थापित होना चाहिये। उनकी समस्यायें भी सुननी चाहिये। तालक जैसे आधुनिक उपकरण समाज में नयी व्यवस्था स्थापित कर रहे हैं, उनसे अराजकता का भय की कोई वजह नहीं है। नारी को स्वतंत्रता प्रदान की गयी है तो बदले में नारी शक्ति ने समाज में व्यापक परिवर्तन भी किये हैं। हमारी सोच सकारामक होनी चाहिये। कुछ समस्यायें पैदा हुई है - पर मेरा मानना है कि हमें अपनी नयी पीढ़ी पर भरोसा रखना चाहिये। यह उनकी समस्या है - समाधान भी वे ही करेंगे।

बेटियां माता-पिता के प्रति ज्यादा संवेदनशील होती हैं, इसमें संदेह नहीं है।जहां तक सवाल बुजुर्ग पीढ़ी का है उन्हें नयी पीढ़ी पर भरोसा करना होगा।इसके सिवाय उनके पास और कोई विकल्प नहीं है। नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच जो सोच का अंतर है वह है रहेगा भी लेकिन कहीं न कहीं सामंजस्य बिठाना भी पड़ेगा।
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