जब तक दूध देती है गाय हमारी माता है!

 मैं गो भक्त नहीं हूं। किन्तु गाय की सुरक्षा और रखरखाव की प्रति मेरी रुचि हमेशा रही है। वैसे गाय का मुझ पर बहुत उपकार है। बचपन में मुझे दमे (अस्थमा) की बीमारी थी। बीमारी लाइलाज हो गई थी। घरवाले
परेशान थे। कई वैद्यों ने दवायें दी, जड़ी-बूटियों का सेवन किया। किसी जानकार ने कहा ''गौ मूत्र पीयो''। मरता क्या नहीं करता। मैंने दो-तीन बार गोमूत्र का सेवन किया। मैं काफी ठीक हो गया। इसलिये गाय की
उपयोगिता समझने की मुझे जरूरत नहीं पड़ती। गाय की संवेदना का भी गवाह हूं। फिर एक पुरानी घटना का हवाला देना चाहता हूं। राजस्थान में अपने पितृस्थान नोहर से हम हमेशा के लिये कोलकाता के लिये कूच
करने वाले थे। हमारी हवेली (निवास स्थान) के नीचे हमारे परिवार की गाय बांधी जाती थी - उसके लिए एक छोटा सा घर बना हुआ था। गाय के बारे में यही तय हुआ कि इसे स्थानीय गौशाला को सौंप दिया जाय।
मेरी दादी गाय की सेवा सुश्रुषा करती थी - स्वयं अपने हाथ से। गाय से दादी का बहुत आत्मीय लगाव था। गाय को ले जाने गौशाला वाले समय पर आ गये। गोशाला को देने के लिये गाय को खूंटे से अलग किया गया
तो गाय के आँखों में आंसू बहने लगे। रोने वाले में गाय अकेली नहीं थी। उधर मेरी दादी फूट-फूट कर रो रही थी। पैंसठ साल से भी ’यादा वक्त गुजर गया, यह दृश्य आज भी मेरे जहन में है। गाय के नाम पर हमारे देश में धार्मिक कर्मकांड किये जाते हैं। गो- पालन पर बड़ी-बड़ी बातें की जाती है। पर सच तो यह है कि दुनिया के जिन कई देशों में मुझे जाने का मौका मिला, वहां गाय की स्थिति हमारे देश से कहीं बेहतर है। फर्क सिर्फ यही है कि हम गाय को माँ सिर्फ इसलिए समझते हैं य्योंकि वह दूध देती है। पर कहावत है दुधारू गाय की लात भी सहनी पड़ती है। इस लोकोक्ति से स्पष्ट है कि जब तक वह दूध देती है हम उसकी लात भी बर्दाश्त करते हैं।
हमारे देश में गोशालाओं की स्थापना राजस्थानी समाज की देन है। राजस्थान के लोगों का गाय से विशेष लगाव रहा है। उसे देवता की तरह पूजते हैं। गोशालाओं की स्थापना ओल्ड एज होम की तर्ज पर की गयी थी। जब गाय दूध देना बंद कर दे हम गोशाला में उसकी सेवा-सुश्रुषा कर सकें इस उद्देश्य से गोशालायें बनायी गयी थी। आज शायद ही कोई गोशाला है जहां सिर्फ बूढ़ी गायों की सेवा होती है। सभी गोशाला में दूध बेचने का काम शुरू हो गया है। दूध देने वाली गाय और दूध नहीं देने वाली दोनों प्रकार की गायें पलती हैं। जो गायें दुधारू नहीं हैं, उनकी कितनी खातिर होती है - उसे कोई गोशाला का मुआयना करके की समझ सकता है। दुधारू गायों की पूरी देखभाल की जाती है जबकि वृद्ध गायें राम भरोसे ही पलती हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ही एक बार गो सेवकों की जमकर आलोचना की थी। गाय के नाम पर जो होता है उस पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया था। अपवाद को छोड़कर गो शालायें धंधा बन गई है। राज कपूर की फिल्म ''जागते रहो'' का एक गीत अपने समय में बड़ा लोकप्रिय हुआ था - ''राम नाम जपदे और खांदे गोशाले दे चन्दे''। यह कड़वा सच है। गोशाला में गायें बेचने के कई कांड पकड़े गये हैं। एक बड़ी गोशाला में एक अधिकारी को गाय बेचने के अपराध में निकाला गया। राजस्थान में एक सरकारी गोशाला है जिसमें सरकार पहले आर्थिक सहयोग देथी थी पर जबसे गो भक्त सरकार आई उसने सहयोग देना ब‹द कर दिया। इसको लेकर अखबारों में छपा और संसद में भी सवाल पूछा गया। लोकसभा में एक प्रश्न के उžत्तर में केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री ने बताया कि गोांस का सर्वाधिक निर्यात 2015-16 में हुआ है।
राजस्थान में कई वर्ष पहले जब भयंकर अकाल पड़ा तो हजारों लोगों ने गाय को गले में एक रुपया का नोट बाँधकर उसकी पूजा की और उसे गांव की सरद के बाहर छोड़ आये। कई धर्मगुरुओं का यह कहना है कि गाय के अन्दर देवी-देवताओं का वास होता है (ऊपर का चित्र देखें)। गाय का महिमा मंडन इससे अधिक नहीं हो सकता। पर वे इस सवाल का क्या संतोषजनक जवाब देंगे कि जब गाय काटी जाती है तो वास करने वाले देवी-देवता उसकी रक्षा क्यों नहीं कर पाते। जिस गाय की रक्षा आस्था के पुंज हमारे सर्व शक्तिमान देवी-देवता नहीं कर पाते तो उनके सामने हमारी तो औकात ही य्या है? इस प्रकार के कई तर्क देकर वे किस हद तक गोरक्षा कर पाते हैं, मेरी समझ के बाहर है। गोदान का धार्मिक महत्व है। एक ही गाय की पूंछ पकड़ कर कई लोगों सो गोदान कराया जाता है - यह सभी जानते हैं। जिस प्रकार राजनीतिक दल गो हत्या के प्रति घड़िय़ाली आंसू बहाते हैं इसमें तनिक भी संवेदना बोध है तो जहां उनके विचारों की सरकार है कम से कम वहां गोवध पर प्रतिबंध लागू करने का साहस दिखायें। योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनते ही ऐसा समां बांधा मानो यूपी के सारे बूचडख़ाने बंद कर देंगे। पर वे कानूनी और गैर कानूनी बूचडख़ाने की पहेली समझा कर अब चुप हैं और सभी बूचडख़ाने बदस्तूर चल रहे हैं। हाल ही में जैन संत कमल मुनि ने कलकžत्ता की एक धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए यह पूछा कि पेड़, पानी और शेर आदि जंगली जानवरों के वास्ते वन अभ्यारण्य बनाकर सरकारें अरबों रुपये खर्च कर सकती हैं तो फिर गो अभ्यारण्य पर क्यों नहीं? जब एक शहर में 5 कत्लखाने को जमीन मिल सकती है तो गोशाला को य्यों नहीं? जैन मुनि ने कहा कि धार्मिक जनता के लिए भी गाय मात्र धार्मिक अनुष्ठान कर्मकांड तक सीमित रह गयी है। लोग मार्बल की गाय की तो आरती उतारेंगे, लेकिन जीवित गाय को गंदगी खाने को मजबूर करेंगे। नि:संदेह गाय पर सख्त अनुसंधान की जरूरत है। जब मत्स्य मंत्रालय बन सकता है तो गो मंत्रालय कयों नहीं? गाय आंदोलन या धार्मिक मेले आयोजित करने से नहीं गो पालन से बचेगी। गो पालक किसान जब आत्महत्या कर रहा है तो फिर गो पालेगा कौन? इन सवालों पर चिंतन- मंथन आवश्यक है। आज जिनता पैसा गो सम्मेलनों और गो रक्षा के नाम पर किये जा रहे कर्मकांडों में खर्च किये जाते हैं यह गो-पालन में ईमानदारी से खर्च किया जाता तो गाय की यह दुर्दशा नहीं होती।
अंत में इस कारण का भी कथित गो भक्त पता लगायें कि सन् 1947 में जब भारत आजाद हुआ गाय की 64 नस्ल थी, आज मुश्किल से 30-32 बची है। बाकी नस्लें कहाँ गयी? 

Comments

  1. बहुत बढ़िया विश्लेषण किया गया है

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  2. गाय को लेकर जो बातें आपने अपने रवीवारीय चिंतन में उठाई हैं, काबिले गौर हैं। गाय से जिस संवेदनात्मक संबंध और ममत्व का उल्लेख आपने अपनी दादी के हवाले से दिया है,वह मर्मस्पर्शी है। क्या गाय की राजनीति करने वाले इसे समझ पाएंगे?

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