तमसो मा ज्योतिर्गमय
दीपावली के दिन इस वैदिक प्रार्थना को याद किया जाता है-''तमसो मा ज्योतिर्गमय''- अंधकार से प्रकाश की ओर चलो। इससे जुड़ी पंक्तियां हैं - अज्ञान से ज्ञान, असत्य से सत्य की शक्ति मिले। इसलिए वेद, उपनिषद, धर्म और भारतीय दर्शन व संस्कृति की चर्चा करने वालों को असली परंपरा, आदर्श मूल्यों के साथ जमीनी सच्चाई को समाज में रेखांकित करना चाहिए। इसके बिना सिर्फ हितोपदेश हमारे ऊपर से निकल जाते हैं एवं मर्म को स्पर्श नहीं कर पाते। सच पूछिये तो विगत कुछ दशकों में अपराधों में जो बेतहाशा वृद्धि हो रही है, दो-तीन वर्ष की बच्चियों के साथ बलात्कार से लेकर आर्थिक व सामाजिक कुकृत्यों में बेलगाम बढ़ोतरी हुई है उसका एक कारण यह भी है कि धर्म और आध्यात्म के नाम पर कुछ कथित धर्मगुरुओं ने हमें मोक्ष का रास्ता तो बताया किन्तु जीवन को कैसे जीएं यह नहीं बता सके। परिणामस्वरूप अगला जन्म सुधारने हेतु लोगों ने दान धर्म किये पर इस जीवन को सुन्दर, सार्थक और उपयोगी बनाने का प्रयास नहीं किया गया। हिन्दू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है पर इहलोक के गुरुत्व को कम नहीं बताता। जीवेम शत: का आशीर्वाद इसी जन्म के लिये दिया जाता है। इसीलिये दिवाली पर दीपक जलाने के साथ अपने अंदर के कलुष को मिटाने का संकल्प पहले लेना होगा। वेद के सूत्रों में कहा गया है- पृथ्वी जिसमें हम बसे हैं सागर-नदी और अन्य जल भंडार, जिसमें अन्न और धान के खेत हैं, जिसमें जीते हैं चराचर सभी, वही भूमि हमको दे अपने अपूर्व फल। पृथ्वी, जो जाए हैं तुम्हारे - वे हों रोग मुक्त और शोक मुक्त।
हिन्दू, जैन, बौद्ध धर्मों का पूरा दर्शन अहिंसा पर आधारित है। वनों और कुंजों में भी शांति की परिकल्पना हजारों वर्ष पहले हमारे ऋषि मुनियों ने की थी। आज हम समझते हैं कि वनस्पति शांति का अर्थ क्या है और मानव संतति किस प्रकार इस शांति के साथ जुड़ी हुई है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का अर्थ है मानव जाति का विनाश। मानव जाति के साथ पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों, पेड़-पौधों के संरक्षण की बात को सर्वाधिक महत्व दिया गया है लेकिन भारत में प्रगति के साथ ये मूलभूत आदर्श जीवन मूल्य भुलाए जा रहे हैं। चीन जैसे देश में जहां ईश्वर या धर्म की अवधारणा को नकार दिया गया है, वहां भी पर्यावरण की रक्षा एवं सृष्टि को बचाने हेतु कई कारखाने बंद कर दिये गये हैं। जबकि भारत कबाडख़ाने का डम्पिंग सेन्टर बनता जा रहा है। नदियों को पवित्र माना जाता है किन्तु किसी नदी का पानी आचमन योग्य नहीं है। अंतिम सांस के पहले मुंह में गंगा जल दिया जाता है पर जीते जी गंगा का पानी पीने का कोई विमर्श नहीं देता। इसी परिपेक्ष्य में भारत के तीज-त्योहार - दशहरा, दिवाली, छठ, होली, गणेश चतुर्थी, अनंत चतुर्दशी इत्यादि का असली मकसद सामाजिक-सांस्कृतिक सौहाद्र्र रहा है। हमारे यहां शान्ति और सौंदर्य की उपासना होती रही है। प्रेम और सौहाद्र्र हमारी संस्कृति की घुट्टी में है। कृष्ण तो स्वच्छन्द प्रेम के उपासक थे। लेकिन खाफ पंचायत ऐसे प्रेम को मौत के घाट उतारने में जरा भी नहीं हिचकिचाती। यहां तक कि मीरा को कृष्ण प्रेम का सिला जहर के प्याला से दिया गया। भगवान श्री कृष्ण ने हरियाणा के कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश दिया जिसे हम महान आदर्श मानते हैं पर क्या विडम्बना है कि उसी हरियाणा में सामूहिक बलात्कारों की संख्या सबसे अधिक है। हमारे आदर्श और वास्तविकता के विरोधाभास का इससे ज्वलंत उदाहरण क्या हो सकता है। हमारी राष्ट्रीय विडम्बना है कि हमने हर विधा के देवी-देवता की कल्पना की हैं किन्तु धरातल की सच्चाई कुछ और है। कला और विद्या की देवी सरस्वती है पर शिक्षा के सुयोग से आज भी चार करोड़ बच्चे वंचित हैं। धन की देवी लक्ष्मी है पर दारिद्र का हमारे देश के साथ जन्म जन्मान्तर का वास्ता है। आज भी 28 प्रतिशत भारतीय गरीबी की रेखा से नीचे वास करते हैं। मनुष्य के शरीर पर हाथी का मुंह लगाकर उच्च विकसित सर्जरी का उत्कृष्ट नमूना गणेश जी का स्वरूप है पर मेडिकल साइंस में दुनिया में हमारा स्थान छोटे यूरोपीय देशों से कहीं नीचे है, अमेरिका, रूस, चीन की बात तो छोड़ दीजिये।
मां के गर्भ से ही बच्चा सीखना प्रारम्भ कर देता है। चिकित्सा विज्ञान भी आज इसे स्वीकार करता है। महाभारत में वर्णित अभिमन्यु चक्रव्यूह-भेदन की कहानी मिथक नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्य है। आज जो विज्ञान रहस्योद्घाटित कर रहा है हमारे मनीषियों को हजारों साल पहले ही ज्ञात थी। यहीं यह प्रश्न समयोचित है कि आखिर ज्ञान होता क्या है? क्या जानकारी ही ज्ञान है? वर्तमान शिक्षा पद्धति एवं संचार के माध्यम सूचना और जानकारी तो देते हैं पर ज्ञान का सम्प्रेषण नहीं कर पाते। ब्रिटिश भारत के योजनाकार लार्ड मेकाले चाहता था कि भारतीय सिर्फ लिखा-पढ़ी करने वाले बाबू ही बने रहें। हमने इस पद्धति में आमूल चूल परिवर्तन नहीं किया। परिणामस्वरूप स्त्री और पुरुषों में चार्टर्ड एकाउन्टेंट बनने की प्रतिस्पर्धा है और हम प्रति वर्ष हजारों सीए पैदा कर रहे हैं किन्तु इंजीनियर, वैज्ञानिक एवं हाईटेक शिक्षा के लिये हमारे बच्चों को विदेश जाना पड़ता है। मौलिक सोच विकसित नहीं हो पा रही है। हमारी शिक्षा पद्धति आज भी मैकाले के भूत को ढो रही है। यह भूत हमारे वर्तमान को नष्ट कर रहा है और भविष्य की भ्रूण हत्या। इस शिक्षा प्रणाली ने हमारे परंपरागत ज्ञान-विज्ञान और विद्या को विनिष्ट करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। आज सिर्फ किताबी कीड़ों की फौज तैयार होती जा रही है। परीक्षा में सर्वोत्कृष्ट अंक प्राप्त करने वाली होनहार छात्राओं से मैंने पूछा कि वे भविष्य में क्या बनना चाहती है। तीन-चौथाई छात्राओं का आदर्श इन्दिरा नूई या चन्दा कोचर है। स्पष्ट है देशी और विदेशी कम्पनियों की मुनीमगिरी से ऊपर हमारी सोच नहीं है। सीता पुष्पक विमान से गई थी पर अब नागरिक उड्डयन में भारत सिरमौर नहीं है। हम राफेल या बोफोर्स खरीद सकते हैं पर बना नहीं सकते।
इसी अज्ञान रूपी अंधकार से निकलकर वैज्ञानिक प्रकाश एवं वास्तविक विकास का मार्ग प्रशस्त करे ऐसे उजाले की हमें तलब है। मन्दिर की घंटी बजाकर या अजान से नहीं और न ही गिरजाघर में मोमबत्ती जलाकर बल्कि इसके लिये वैज्ञानिक तकनीकी शिक्षा की साधना करनी होगी।
''आप्प दीपो भव'' यानि ''स्वयं अपना दीपक बनो'' के विमर्श के साथ दीपोत्सव की सबको हार्दिक शुभकामनाएं।


आपको भी दीपावली की अग्रिम शुभकामना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर है आपकी अभिव्यक्ति। हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं
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